________________
२६८ | अप्पा सो परमप्पा
जाती है कि 'यह करो यह न करो।' 'इस प्रकार का व्यवहार करो, ऐसा व्यवहार न करो' इत्यादि । तत्पश्चात् वह प्रभु के आदेश-सन्देश को शिरोधार्य कर लेता है, तथा परमात्मा के द्वारा स्थापित संघ एवं संघनायक के अनुशासन में चलता है।
कर्मयोगी श्रीकृष्ण द्वारा गीता का उपदेश और बोध प्राप्त कर लेने पर भी अर्जुन विषादमग्न रहा। युद्ध क्षेत्र में हुई खिन्नता को वह शान्त एवं समाहित न कर सका, न ही स्व-कर्तव्य निर्धारित कर सका। ऐसी स्थिति में वह अपनी अन्तर्व्यथा श्रीकृष्ण जी के समक्ष प्रगट करता है
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः । पृच्छामि त्वां धर्म-संमूढचेताः । यच्छे यः स्यान्निश्चितं ब्रूहितन्मे ।
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ।।1 कायरता के दोष से मेरा स्वभाव आहत हो गया है, इस कारण अपने धर्म के विषय में मेरा चित्त विवेकमूढ़ हो गया है । इस कारण मैं आपसे पूछता है, कि जो मेरे लिए निश्चय ही श्रेयस्कर कल्याणकारक (कर्तव्य) हो, वह मुझे आप कहिए। मैं आपकी शरण स्वीकार किया हुआ, आपका शिष्य हूँ, मुझे शिक्षा दीजिए, अनुशासित कीजिए।
वस्तुतः परमात्मा की शरण स्वीकार करने वाले व्यक्ति का भी ऐसा ही आदर्श होना चाहिए। उसका जीवन अनुशासित, आज्ञांकित और आश्वस्त होना चाहिए।
(४) शरण स्वीकर्ता का समर्पित जीवन-यह शरण स्वीकर्ता का चौथा गुण है। वह परमात्मा के चरणों में अपना जीवन समर्पित कर देता है। फलतः वह निश्चिन्त, निर्द्वन्द्व एवं दृढ़ निश्चय के साथ जीवन यापन करता है । फिर वह शरण्य से कदापि विमुख नहीं होता, न ही वह पीछे मुड़कर अपने और अपनों के लिए चिन्तित होता है ।
विभिन्न धर्मों के धर्मग्रन्थों में शरण के विषय में पृथक्-पृथक् उपदेश
१ भगवद्गीता अ० २, श्लोक ७ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org