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________________ २७८ | अप्पा सो परमप्पा दाय, मत, पन्थ एवं दर्शन में इसका बहुत महत्त्व आंका गया है। बड़े-बड़े अध्यात्म-मार्गदर्शकों, धर्मधुर धरों, अध्यात्म-प्रेरकों तथा भक्तिमागियों ने अध्यात्म मार्ग पर प्रयाण करते समय इसे आवश्यक माना है। इसलिए आत्मसमर्पण की बात अनेक धर्मपुरुषमान्य, बहुजनसम्मत और सार्वजनिक भक्तिमार्गी वैष्णव सम्प्रदायों में प्रभु-भक्ति की दृष्टि से सर्वस्वसमर्पण करने का उल्लेख 'भगवद्गीता' 'भागवत' आदि धर्मग्रन्थों में जगहजगह मिलता है । वहाँ सर्वस्व-समर्पण का फलितार्थ यह किया गया है-1 तू जो कुछ सत्कार्य करता है, जो कुछ उपभोग करता है, तथा तप; जप, यज्ञ, दान, पृष्य आदि का जो भी अनुष्ठान करता है, एवं जो भी सद्व्यवहार, सद्विचार या सदाचरण करता है, वह सब मूझे अर्पण कर ।' इसका फलितार्थ यह है कि तेरे मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, वाणी आदि समस्त अवयव तथा जो कुछ भी तेरे अपने माने हुए तन, मन, धन, साधन, परिवार, सन्तान, पद-प्रतिष्ठा, सम्प्रदाय आदि हैं, उन्हें प्रभु के चरणों में समर्पण कर दे और अन्तर से कह दे–'इदं न मम' (यह मेरा नहीं है, प्रभो ! आपका ही है)। ईश्वर व तत्ववाद की दृष्टि से तन, मन, बुद्धि, वाणी, धन, साधन आदि सब भगवान् के दिये हुए माने जाते हैं। इसलिए समर्पण करते समय भक्त भक्ति की भाषा में कहता है-'प्रभो! आपकी दी हुई वस्तु आपको ही समर्पित करता हूँ। सर्वस्व-समर्पण में तो खाने, पीने, पहनने से लेकर, व्यापार, आजीविका, अध्ययन करना, भोजन बनाना आदि जो भी सत्कर्म हैं, उन सबमें ममत्व और अहंकर्तृत्व बुद्धि का त्याग करना आवश्यक होता है। सांसारिक लोगों को सबसे बड़ा नैतिक लाभ यह है कि परमात्मा के चरणों में सर्वकार्यों और अपनी इच्छाओं को समर्पित करने के बाद वे अकार्य या बुरे कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकते । दुर्व्यसनों और पापकार्यों से तो उन्हें बचना ही होगा। इससे भी आगे बढ़कर समर्पणयोगी भक्त अपने द्वारा किये जाने यत्करोषि यदश्नासि, यज्जुहोसि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय ! तत कुरुष्व मदर्पणम् ।। -भगवद्गीता अ. ६ श्लो. २७ २ 'त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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