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________________ आत्म-समर्पण से परमात्म-समत्ति को उपलब्धि | २७७ समर्पित कर देने तथा अपने अहंत्व- ममत्व को एवं अपने आपको (आत्मा को नहीं) विसर्जित एवं विस्मृत करने के ये सब चमत्कार हैं । वस्तुतः सिद्धः बुद्ध मुक्त परमात्मा के नियम-निर्देश में स्वयं को कर देने तथा उस महाशक्ति में समर्पित कर देने से प्रकृति के करना छोड़ देते हैं । समाविष्ट नियम भी अपना काम परमात्मा के प्रति आत्मसमर्पण के हजारों उदाहरण भारत और अन्य देशों के प्रसिद्ध हैं । चेकोस्लोवाकिया के एक किसान 'विनित्री दो जनोव' ने अपना जीवन परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दिया । वह प्रायः जमीन से ४ फुट ऊँचा उठकर दस मिनट तक गुरुत्वाकर्षण के पार अधर ठहर जाता है । जब उसने इसका रहस्य पूछा गया तो वह बोला - ' इसका मुख्य कारण परमात्मा के प्रति मेरा समर्पणभाव है । मैं अपनो शक्ति से नहीं, किन्तु परमात्मा को शक्ति से, उन्हों को कृपा से इतना ऊपर उठ पाता । जिस समय मैं ऊपर उठता हूँ, उप समय मैं अपने आपको भूल जाता हूँ । मुझे केवल इतना ही याद रहता है कि 'परमात्मा है ।' बस, मैं शीघ्र ही ऊपर उठ जाता हूँ। सारा भार परमात्मा पर छोड़ देने से जोवन के सामान्य नियम भी अपना काम करना छोड़ देते हैं ।' जब कभी 'विनित्रो' जमीन से ऊपर नहीं उठ पाता था, तब वह कहता था - 'आज मैं अपने आपको भूल नहीं सका । मुझे अपने तन एवं अंगोपांगों का ख्याल आ गया था । इस कारण पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण काम करने लगा, जमीन मुझे नीचे खींचने लगी । तात्पर्य यह है कि जब व्यक्ति अपने आपको सर्वथा भूलकर परमात्मा को ही एकमात्र याद रखता है तब उस आत्मसमर्पण का इतना चमत्कार है कि पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पति आदि सब अपनी-अपनी कोशिश छोड़ देती हैं, तब कोई आश्चर्य नहीं कि परमात्मा के प्रति अपना सर्वस्व समर्पण करने से जीवन के सामान्य नियम या शरीर की मांग (भोजन, पानी, निद्रा आदि) न छूट जाये, तथा विषयोपभोगों की वासना, कामना, अहंता-ममता, लालसा, तृष्णा आदि उस साधक के अन्तर से पलायित हो जायँ | यह सब आत्मसमर्पण का चमत्कार है । सभी अध्यात्मपथिकों का आत्मसमर्पण का स्वर इस प्रकार के आत्मसमर्पण का बात प्रायः सभा अध्यात्म-पथिक धर्म ग्रन्थों में कही गई है। आत्मसमर्पण का प्रत्येक धर्म-संस्था, प्रत्येक सम्प्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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