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आत्म-समर्पण से परमात्म- सम्पत्ति की उपलब्धि | २७१
दिया था। वह उनमें इतनी तन्मय हो गई थी कि अपने खाने-पीने, सोनेजागने, सुख- सामग्री का उपभोग करने, यहाँ तक अपने शरीर की तथा अपनी बदनामी सुनामी, प्रतिष्ठा अप्रतिष्ठा की कोई परवाह नहीं की, वह बाह्य व्यवहार में अपने माने जाने वाले सभी पदार्थों से निःस्पृह, निर्द्वन्द्व निरपेक्ष एवं निरालम्ब रही। उसने जीवन का अर्थ ही भगवान् को समर्पित जीवन समझ लिया था । भगवद्गीता में सर्वस्व समर्पण की भावना को बहुत ही विशदरूप से व्यक्त किया गया है
"मय्येव मन आधत्स्व, मयि बुद्धि निवेशय । निवसिष्यसि मय्येव अतः ऊर्ध्वं न संशयः ।। 1
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'हे अर्जुन ! तू अपना मन मेरे ( परमात्मभाव ) में लगा, मेरे (परमात्मपद) में ही अपनी बुद्धि को प्रविष्ट करा । इसके पश्चात् तो तू मेरे (परमात्मभाव ) में ही निवास करेगा, अर्थात् मुझे ही प्राप्त करेगा । इसमें कोई संशय नहीं है ।'
बहिरात्म भाव छोड़कर शुद्ध आत्मा में स्थित होना ही आत्मसमर्पण
सर्वतोभावेन आत्मसमर्पण ही वास्तव में परमात्म-प्राप्ति का या परमात्मा बनने का सरल उपाय है । इसमें हठयोग, जपयोग या आसनप्राणायायादि यौगिक क्रियाओं की जटिलतम प्रक्रियाओं की अपेक्षा नहीं है । किसी भी जाति, कुल, धर्म-सम्प्रदाय, देश, वेश, भाषा या प्रान्त का कोई भी जिज्ञासु आत्मार्थी व्यक्ति बहिरात्मभाव को छोड़कर अन्तरात्मा बनकर परमात्म- चरणों में अपनी आत्मा को समर्पित करके परमात्मपद प्राप्त कर सकता है । इसमें किसी बाह्य अध्ययन की यंत्र-मंत्र-तंत्रादि विद्या में पारंगत होने की अथवा बाह्य भौतिक साधनों की, या लोक पूजा की, अनुयायियों की भीड़ इकट्ठी करने की, अथवा आडम्बर आदि की भी कोई आवश्यकता नहीं है । सबसे बड़ी शर्त है - बहिरात्मभाव छोड़कर शुद्ध आत्मा (परमात्मभाव ) में स्थित होने की जो आत्मा के अपने हाथ में है । अर्थात् शरीर और शरीर से सम्बन्धित आश्रित वस्तुओं में जो आत्मबुद्धि है, उसे छोड़कर शुद्ध आत्मा (परमात्मा) में अपने मन बुद्धि और हृदय को एकाग्र कर देना, परमात्मभाव में अन्तरात्मा को विलीन कर देना तथा तद्रूप, तन्मय, एवं तदात्मभावों से भावित कर देना ही
१ भगवद्गीता अ. १२ श्लो, ८
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