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२७२ | अप्पा सो परमप्पा
सच्चे माने में सर्वांगीण आत्मसमर्पण है । इसमें निखालिस आत्मभाव ही रहता है । निश्चयनय से शुद्ध आत्मा के प्रति समर्पण ही वास्तविक समर्पण है !
परमात्मसमर्पित व्यक्ति का पंचाचार - आचरण
परमात्मा के समक्ष आत्मसमर्पित व्यक्ति के द्वारा जो सम्यग्ज्ञानदर्शन- चारित्र, तप और वीर्य (आत्मशक्ति का आचरण ( आचार) होता है, वह भी आपद ( वीतराग परमात्मभाव ) की प्राप्ति के हेतु से होता है, जैसा कि दशवैकालिक सूत्र में कहा है
आयार महिठिज्जा | आवार महिटिठज्जा ॥
"न इहलो गट्ठयाए न परलो गट्टयाए
न कित्ति वन- सिलोग याए आयारमहिट्टिज्जा | नन्नत्थ आरहंतेहि उहि आयारमहिट्टिज्जा ॥"
( वीतराग परमात्मपद प्राप्ति का इच्छुक साधक) ज्ञानादि पाँच
आचार का पालन न तो इस लोक की किसी आकांक्षा से प्रेरित होकर करे. न परलोक की किसी कामना वासना से प्रेरित होकर करे, न ही कीर्ति, प्रशंसा, प्रतिष्ठा या प्रशस्ति की लालसा से प्रेरित होकर करे, किन्तु एकमात्र आर्हत् (वीतराग) पद प्राप्ति के हेतु ( उद्देश्य) से पंचाचार का पालन करे । इसी में परमात्म-समर्पित जीवन की सार्थकता है ।
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अथवा परभावों एवं विभावों से रहित आत्मा के विशुद्ध स्वरूप में वीतरागता प्राप्त करने के उद्देश्य से रमण करना ही निश्चयदृष्टि से आत्म-समर्पण है ।
स्वेच्छा से आत्मदमन करने से ही यथार्थ आत्म-समर्पण
आत्मसमर्पण नहीं करने वाला व्यक्ति निरंकुश एवं स्वच्छन्द हो जाता है, क्योंकि वह स्वेच्छा से आत्म दमन नहीं कर पाता । फलतः निरंकुश व्यक्ति चोरी, जारी, हत्या, अत्याचार आदि भयंकर अपराध करने में प्रवृत होता है । फिर उसे परिवार, जाति एवं समाज के अगुआ दण्ड देते हैं । धर्म-सम्प्रदाय में भी नीति-नियमों एवं धर्म- मर्यादा के विरुद्ध आचरण करने वाले को दण्ड- प्रायश्चित्त दिया जाता है। सरकार भी चोरी, जारी,
१ दशवैकालिक सूत्र अ. उ. ४
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