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________________ २७० | अप्पा सो परमप्पा "एयं कुसलस्स दंसणं""तट्ठिीए तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारं तस्सण्णी तन्निसेवणे" "अणाणाए एगे सोवट्ठाणा,आणाए एगे निरुवट्ठाणा,एतंते मा होऊ" "जे महं अबहिमणे ।".."णिसं णातिवट्टज्जा मेहावी।" (आत्मसमर्पण में) कुशल (वीतराग-परमात्मा समर्पित साधक) का यह दर्शन है, परमात्मा के प्रति ही उसको (अनन्य) दृष्टि रहती है, उन्हीं के चरणों में उसकी (आकांक्षा, कामना, वासना, कषाय, काम, मोह रागद्वषादि विकारों की) मुक्ति (त्यागवृत्ति) होती है, उन्हीं को वह आगे रखता (लक्ष्य बनाता या केन्द्र में रखता) है। उन्हीं (परमात्मा) में (उसके मन) की संज्ञा (चिन्तन-मनन-संज्ञान) होती है, उन्हीं की निरन्तर सेवना (उपासना) में रत रहता है। __"कई साधक वीतराग-परमात्मा की अनाज्ञा (आज्ञा-बाह्य बातों) में उपस्थित (उद्यत) रहते हैं, कई उनकी आज्ञा में समुपस्थित (समुद्यत) ही नहीं होते । (ये दोनों चेष्टाएँ समर्पणवृत्ति से रहित हैं) ये तुम्हारे (समर्पित) जीवन में नहीं होनी चाहिए।" __ "जिसका मन मेरे (परमात्मा) से अबाह्य है, (वही समर्पणकारी __ "मेधावी साधक वीतराग-परमात्मा के आदेश निर्देश का अतिक्रमण (उल्लंघन) न करे।" निष्कर्ष यह है कि वीतराग-परमात्मा के प्रति जिस साधक ने आत्मसमर्पण कर दिया है, वह जब अपने स्वकीय का अस्वीकार कर देता है । तब उसके मन, बुद्धि, चित्त, हृदय, प्राण आदि में अन्य किसी परभाव या विभाव का निवास न होकर वीतराग-परमात्मा का निवास रहता है, उसके दशविध प्रायः तन, मन, वचन वही प्रवृत्ति करते हैं, जो प्रभु की आज्ञा में हो, जो प्रभु के द्वारा आदिष्ट, स्वीकृत या मान्य हो। उसकी गति, मति, दृष्टि, बुद्धि में एकमात्र प्रभु ही रहता है। परमात्मा को ही केन्द्र में रखकर या वीतराग-परमात्प्रभाव को लक्ष्य में रखकर वह प्रवृत्ति या आचरण करता है। भक्तशिरोमणि मीरा द्वारा अनन्य आत्मसमर्पण भक्तशिरोमणि मीरा ने श्रीकृष्ण के प्रति अपने-आपको समर्पित कर १ आचारांग सूत्र श्रु. १, अ. ५ उ. ६ सू. ५७८, ५७६, ५७७, ५८१, ५८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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