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________________ आत्म-समर्पण से परमात्म-सम्पत्ति की उपलब्धि | २६६ सत्संगति, उपासना एवं ज्ञानार्जन में बिताये, फिर भी वे अपने आप में सन्तुष्ट नहीं हुए। अन्त में उन्हें यह कहते हुए अपने समग्र जीवन को प्रभचरणों में समर्पित करने पर ही आत्मसन्तोष मिला "मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर । तेर। तुझको सौंपते, क्या लागत है भोर ।।1 परमात्म-समपित व्यक्ति का जीवन वास्तव में, जिस साधक की आत्मा सम्यगज्ञान, दर्शन, आनन्द (आत्मिक सुख) और आत्मशक्ति की परिपूर्णता प्राप्त करके परमात्मभाव में लीन होना या परमात्मा में प्रतिष्ठित होना चाहती है, उसके लिए सबसे आसान और सर्वसुलभ, स्वाधीन मार्ग-प्रभु चरणों में सर्वतोभावेन. आत्मसमर्पण का है। परमात्मा के समक्ष पूर्वोक्त रूप से आत्मसमर्पण करने के पश्चात् व्यक्ति अपने अहंत्व-ममत्व का सर्वथा विसर्जन कर देता है। अर्थात् वह अपनी अहंता, ममता और स्वछन्दता से पूर्णतया छुट्टी पा लेता है । फिर उसे अपनी आकांक्षाओं, आशाओं, इच्छाओं, लालसाओं और वासनाओं के लिए कोई स्थान नहीं रहता । न ही परमात्म-समपित व्यक्ति अपने हृदय में कोई गुप्त विचार, स्वतन्त्र मत, पूर्वाग्रह या पूर्व-संस्कार अथवा भूतपूर्व मान्यताओं अथवा बौद्धिक उछलकूद, छल-छद्म स्वार्थ, लोभ आदि को स्थान दे सकता है। आत्मसमर्पण करने वाले साधक के जीवन से जब अहंता-ममता विदा हो जाती है, तब उसके अपने विचार, मत, मान्यता, पूर्वाग्रह, बौद्धिक उछलकूद. शारीरिक कुचेष्टा, वाचिक दुष्प्रवृत्ति तथा अहंकर्तृत्व या ममकर्तृत्व को कोई अवकाश नहीं रहता। संक्षेप में जब वह अपने शरीर और शरीर से सम्बन्धित परभावों और विभावों का-अर्थात, स्वकीय माने हए पदार्थों का राग-द्वेषमूलक चिन्तन नहीं करता, अपने तन, मन, बुद्धि, हृदय, इन्द्रियाँ आदि सबको शुद्ध आत्मा के चिन्तन में या परमात्मभाव के चिन्तन-मनन में लगाता है, तब उसका परमात्मा के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण हो जाता है । आचारांग सूत्र में इसी समर्पणयोग के मूलमंत्र मिलते हैं १ कबीर दोहावली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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