SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्म-समर्पण से परमात्म- सम्पत्ति की उपलब्धि | २६७ आत्मसमर्पण का अर्थ और तात्पर्य आत्म-समर्पण का अर्थ है - सर्वतोभावेन अन्तःकरण से इष्ट (परमात्मा ) या उत्कृष्ट के प्रति अपने आपको समर्पण करना, तन, मन इन्द्रियाँ, बुद्धि आदि सर्वस्व उनको सौंप देना, जीवन में सर्वत्र वीतराग परमात्मा को प्रतिष्ठित करना । अपनी समस्त बागडोर प्रभु के हाथों में सौंपकर उनके आदेश निर्देशों के अनुसार परमात्मभाव-प्राप्ति के मार्ग पर सतत् चलना, उनकी आज्ञा-पालन करना अपना धर्म समझना - साधना - समर में पीछे मुड़कर अपने माने हुए परभावों-विभावों को न देखना और परमात्म भाव या स्वभाव के प्रवाह हमें आगे से आगे बहते जाना है । वास्तव में परमात्म-समर्पण में सामान्य आत्मा अपने अहंकार को सर्वथा विदा कर देता है । आत्म-समर्पण और 'अप्पाणं बोसिरामि' का फलितार्थ एक ही है । जैनशास्त्रों में जगह-जगह प्रत्येक धार्मिक क्रिया या त्याग, संयम, तप, व्रत- प्रत्याख्यान स्वीकार करने के साथ-साथ 'अप्पाणं वोसिरामि" [ मैं अपने आपका (आत्म) व्युत्सर्ग करता हूँ। यह वाक्य आता है । इस छोटे से सूत्र में आत्म-समर्पण का सारा फलितार्थ समाविष्ट है । इसका तात्पर्य है - अपनी वैयक्तिक स्वार्थ से सनी इच्छाओं, पद, प्रतिष्ठा, प्रशंसा, प्रसिद्धि एवं यशकीर्ति की प्राप्ति से प्रेरित महत्वाकांक्षाओं, अपनी लोभ, लोलुपता एवं मिथ्याभिमान से भरी वासनाओं, कामनाओं, अपनी अहंता ममता, अपनी लालसा - तृष्णा, अपनी उद्दाम चंचलवृत्तियाँ, अपनी सुख-सुविधाजन्य वासना, किसी भी सजीव-निर्जीव पदार्थ या अपने तन, मन, वचन तथा अहंत्व या स्वत्वमोह से प्रेरित अपने माने हुए धर्म-सम्प्र दाय, पंथ, देश, वेष, भाषा प्रान्त, राष्ट्र आदि परभाव तथा कषाय, राग, द्वेष, मोह, काम आदि से प्रेरित अपने समस्त विभावरूप मनोभावों दुर्विचारों, दुष्कार्यों तथा अपनी समस्त सावद्य प्रवृत्तियों को सर्वतोभावेन प्रभुचरणों में उत्सर्ग कर देना, सच्चे माने में आत्म-समर्पण है; क्योंकि अप्पा वोसिरामि कहने के बाद अपने मन-वचन, आदत को सावद्य (पाप दोषयुक्त) कार्यों से हटाना ही होगा । यही परमात्मा के चरणों में भाव नवेद्य चढ़ाना है, यही देवाधिदेव वीतराग प्रभु के चरणों में शुद्ध भावों का चढ़ावा चढ़ाना है । सन्त कबीर की भाषा में यही प्रभु भक्ति सिद्ध करने १ आणाए मामगं धम्मं - आचारांग । २ 'करेमि भंते' - आदि आवश्यक सूत्रीय पाठों में । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy