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________________ २६६ / अप्पा सो परमत्पा करता है। बिना कुछ तप, त्याग, संयम किये, अपनी महत्त्वाकांक्षाओं, फलाकांक्षाओं एवं भौतिक इच्छाओं का दमन-नियन्त्रण किये बिना ही परमात्मा को रिझाना चाहते हैं। इसी को वह आत्मसमर्पण समझता है, परन्तु यह आत्मसमर्पण नहीं, एक प्रकार से आत्मवंचन है जो व्यक्ति अन्तर में भौतिक लालसा रखकर बाहर से औपचारिक रूप से परमात्मा के प्रति कृत्रिम अर्पण करते हुए कहता है-'इदं न मम'-प्रभो! यह सब मेरा नहीं है। यह सब आपका है। उसके अन्तर में सभी सजीव-निर्जीव पर पदार्थो तथा अपनी निकृष्ट वत्तियों-कषायों या विभावों पर उसका अहंत्व-ममत्व का सपं कुण्डली मारे बैठा रहता है। वीतराग प्रभु की आज्ञा की ओट में वह सभी कार्य मनमाने ढंग से करता है, अपनी स्वच्छन्दता एवं स्वछन्द प्रवृत्तियों पर कोई अंकुश नहीं लगाता । यह आत्मसमर्पणता नहीं स्वछन्दता है। जब तक ऐसी स्वछन्दता को जीव स्वयं रोक नहीं पाता, तब तक वह परमात्मभाव या मोक्ष के मार्ग से दूर रहता है। श्रीमदरायचन्दजी ने भी इस तथ्य का समर्थन किया है मानादिक शत्रु महा निज छेदे न मराय । जातां सद्गुरु-शरणमां, अल्पप्रयासे जाय ।।1 आत्मसमर्पण के बिना... वस्तुतः निर्दोष, निःस्पृह, निष्पक्ष, वीतराग परमात्मा के चरणों में आत्मसमर्पण किये बिना अव्यक्त रूप से उनकी कृपा, अनुग्रह या प्रेरणा नहीं हो सकती। और उनकी कृपा के बिना साधक की स्वच्छन्द वृत्तिप्रवृत्ति या संकल्प-विकल्प मिट नहीं सकते। अभिमानादि शत्रु के मिटे बिना उसके तन-मन को शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। उसकी अहंताममता भी उछल-कूद मचाती रुक नहीं सकती, उसकी नामना-कामना, तुच्छ स्वार्थवृत्ति एवं उद्दाम वासनाएँ भी पलायित नहीं हो सकती । और जब तक अहं वृत्ति से प्रेरित ये बातें दूर नहीं होती और हृदय से आत्म. समर्पण नहीं हो जाता, तब तक साधक को शुद्ध आत्मभाव या परमात्मभाव में गति-प्रगति नहीं हो सकती। १ आत्मसिद्धि गा. १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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