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________________ आत्म-समर्पण से परमात्म-सम्पत्ति की उपलब्धि | २६५ आत्मसमर्पण से कतराने वाले व्यक्ति जो व्यक्ति संकीर्ण स्वार्थपरता में निमग्न हैं, आत्मकेन्द्रित हैं, तथा उद्धत, अहंकारी एवं कुतर्कप्रवीण हैं, ऐसे असीम महत्त्वाकांक्षी सांसारिक सुख लिप्सु पुद्गलानन्दी व्यक्ति वीतराग परमात्मा के चरणों में आत्मसमर्पण करने से कतराते हैं । वे समझते हैं कि 'आत्मसमर्पण' ( Surrender) कर देने से तो बहुत-सी सुख-सुविधाएँ, तमन्नाएँ, महत्त्वाकांक्षाएँ, स्वतन्त्रताएँ छोड़नी पड़ेंगी। ऐसी स्थिति में न तो हम ऐशआराम से जी सकेंगे और न ही पूरी तरह से खा-पी सकेंगे और न ही स्वतन्त्रतापूर्वक कहीं आ-जा सकेंगे । ऐसे वक्रजड़ एवं निपटस्वार्थी लोग प्रभुचरणों में अहं के सर्वथा त्याग करने एवं सर्वस्व समर्पण करने में कोई न कोई बहाना बना लेते हैं । ऐसे संकीर्ण स्वार्थी आत्मकेन्द्रित व्यक्ति कदाचित् भौतिक उपलब्धियों से सम्पन्न भी हो जाएँ, किन्तु आत्मिक उपलब्धियों से वे वंचित ही रहते हैं, परमात्मभाव को पाने का मार्ग उन्हें नहीं मिल पाता । ऐसे व्यक्ति प्रायः संसार के लिए अभिशाप सिद्ध होते हैं । जिस प्रकार दियासलाई स्वयं तो जलती ही है, साथ ही वह अपने सम्पर्क के क्षेत्र में भी अग्निकाण्ड खड़ा कर देती है । इसी प्रकार आत्मसमर्पण न करने वाला अतिस्वार्थी व्यक्ति स्वयं तो स्वार्थ, द्व ेष, ईर्ष्या, घृणा, प्रतिशोध, वैरविरोध आदि की आग से जलता रहता है, अपने सम्पर्क में आने वाले परिवार, संघ, समाज, राष्ट्र आदि में भी वह ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, स्वार्थ आदि की चिनगारियां फैलाता रहता है । आत्मसमर्पण की श्रान्ति यथार्थरूप में आत्मसमर्पण न करने वाला व्यक्ति अपने अहं के नशे में इतना गर्क हो जाता है कि वह उस समय आत्मा, परमात्मा धर्मगुरु, मार्गदर्शक एवं प्रेरक पवित्र साधु-साध्वीवर्ग को भी कुछ नहीं समझता । वह शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं को ही सब कुछ समझता है । वह विषयसुखों में निमग्न होकर अपने धन, धाम, जमीन-जायदाद, परिवार, आदि को ही अपने समझकर उन पर अहंत्व - ममत्व करता रहता है । फलतः वह बहिरात्मा ही बना रहता है । भौतिक और सांसारिक उपलब्धियों के लिए वह परमात्मा की छवि या मूर्ति के आगे नाच-गाकर उनकी जय बोलकर केवल उनका गुणगान, स्तवन, स्तुतिपाठ या स्तोत्रपठन करके या उनकी मिन्नतें करके, उनके समक्ष कृत्रिम दीनता - हीनता प्रदर्शित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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