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२६४ | अप्पा सो परमप्पा
कारण तो अध्यापक ही है। अध्यापक को आदर दिया जाता है, उसका विनय और बहुमान किया जाता है, वह भी इसी दृष्टि से। जब भी विद्यार्थी अध्यापक से मिलता है, तब वह उन्हें प्रणाम करता है । वार्तालाप के सिलसिले में भी वह कृतज्ञता प्रगट करता है- "आपकी कृपा से मुझे विद्या प्राप्त हुई हैं, आपकी इस कृपा के लिए आभारी हूँ। आपने मुझे ज्ञान दिया और इस योग्य बनाया !" अगर विद्यार्थी अध्यापक के प्रति विनय-भक्ति न करे उनसे विमुख, उच्छृखल, स्वच्छन्द होकर चले और यह कहे ? कि मैंने अपने पुरुषार्थ से विद्या प्राप्त की है, इसमें गुरुजी ने क्या किया? उस कृतघ्नता और उद्दण्डता के फलस्वरूप उसकी विद्याध्ययन में प्रगति ठप्प हो जाती है। वह प्रायः जोवनव्यवहार के क्षेत्र में अयोग्य और असफल हो जाता है, साथ ही उसे अपने जीवन क्षेत्र में आने वाली विघ्न-बाधाओं, अड़चनों, संकटों आदि से जूझने और निविघ्नतापूर्वक सफलता प्राप्त करने की सूझबूझ नहीं प्राप्त होती। लौकिक और लोकोत्तर दोनों क्षेत्रों में स्वच्छन्दता श्रेयस्कर नहीं है ।1
यही बात आध्यात्मिक साधना के अलौकिक क्षेत्र के विषय में समझ लेनी चाहिए। यदि कोई साधक परमात्मभान के प्रेरक, मार्गदर्शक एवं निर्देशक से परमात्मभाव की प्रेरणा, मार्गदर्शन, एवं आदेश-निर्देश-संदेश प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से प्राप्त करता है, और अपनी अन्तरात्मा में सोई हई गुप्त आध्यात्मिक शक्तियों को वह जानने पहचानने लगता है, उन्हें प्रकट करने का मार्ग, मार्ग में आने वाली रुकावटों और अवरोधों को समझ लेता है, फिर मार्ग पर चलकर कुछ सफलता प्राप्त करते ही वह अहंकार में डूब जाता है, पूर्वोक्त प्रत्यक्ष-परोक्ष मार्गदर्शक के प्रति अविनय प्रकट करता है, उनकी कृपा की अवगणना करता है, अथवा उनके प्रति समर्पित न होकर स्वयं यद्वा-तद्वा उक्त साधना के मार्ग पर चल पड़ता है, तब उसकी प्रगति वहीं ठप्प हो जाती है, उसे परमात्मा की कृपा नहीं प्राप्त होती, फलतः वह अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष या परमात्मभाव को प्राप्त नहीं कर पाता। सर्मपण ता से ही वह परमात्मप्राप्ति के मार्ग में प्रगति करके एक दिन अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है ।
१ "न हु सच्छंदता सेया लोए किमुत उत्तरे ।"
- व्यवहारभाष्य पीठिका गा. ८६
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