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________________ आत्म-समर्पण से परमात्म- सम्पत्ति की उपलब्धि | २६३ प्राप्त होती है, अथवा साधना के मार्ग में आने वाली विघ्न-बाधाओं, भय स्थानों खतरों और प्रलोभनकारी मोहक वस्तुओं से सहीसलामत पार होने में जो अव्यक्त सहायता प्राप्त होती है, उन वीतराग परमात्मा के प्रति उसमें कृतज्ञता, नम्रता, समर्पण भावना या भक्ति को वह भूल जाता है, अपने अहंत्व एवं मद के नशे में । उसकी परमात्मभाव की साधना की प्रगति में अनेक रुकावटें आ जाती हैं । वह अपनी अहंता एवं स्वच्छन्दता के आवेश में सोच ही नहीं पाता कि मेरी प्रगति ठप्प होने का मूल कारण क्या है ? परमात्ममार्ग पर चलने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है ? अपने पुरुषार्थ को ही सर्वस्व मानने वाले साधक को तटस्थ होकर आत्मनिरीक्षण करना चाहिए कि मूल में स्वयं को इस परमात्म प्राप्ति के मार्ग पर चलने की इच्छा कैसे और कहाँ से जागी ? सांसारिक विषयों और सजीव-निर्जीव पदार्थों अर्थात् परभावों के मोह-ममत्व या राग-द्व ेष पड़ी हुई मेरी आत्मा को आत्म चिन्तन, आत्म निरीक्षण, आत्मविश्वास आत्मगुणों में रमण, आत्मभाव में स्थिरता तथा आत्मशुद्ध करने की मूल प्रेरणा कहाँ से, किससे मिली ? परमात्मा के स्वभाव, गुण और स्वरूप का जानने की उत्सुकता कैसे जगी ? यद्यपि उनके नाम, स्वरूप, गुण और स्वभाव का स्मरण करने की प्रेरणा को ग्रहण करने में निश्चय दृष्टि से तो अपनी आत्मा ही उपादान कारण है, किन्तु व्यवहारदृष्टि से वीतराग- परमात्मा अथवा वीतराग परमात्मा की वाणी, उनके द्वारा स्थापित साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ आदि निमित्त कारणों की उपेक्षा कैसे की जा सकती है ? प्रारम्भिक भूमिका में साधक की दृष्टि आध्यात्मिक मार्ग की ओर जाती है, अन्तर् में मुमुक्षा या परमात्म भावप्राप्ति की अभीप्सा, शुद्ध आत्मदर्शन की तमन्ना और इस मार्ग पर गतिप्रगति होती है, इसमें मूल निमित्त कारण तो परमात्मभाव की कृपा ही समझी जानी चाहिए । अहंता से प्रगति में अवरोध : समर्पणता से प्रगति लौकिक विद्या प्राप्त करने में यद्यपि व्यक्ति स्वयं ही, उसकी आत्मा ( उपादान) ही कारण है, क्योंकि ज्ञान तो आत्मा में अव्यक्त रूप से पड़ा ही है, अध्यापक शिक्षक ज्ञान को बाहर से नहीं उड़ेल देता । फिर भी विद्यार्थी की आत्मा में सुषुप्त अव्यक्त ज्ञान को प्रकट करने में निमित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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