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________________ २६२ | अप्पा सो परमप्पा का प्रदर्शन करने लगा । अपने अयुयायी बढ़ा लिये। अहंकारवश अपनेआपको तीर्थंकर, भविष्यवक्ता तथा साधना में पारंगत कहने लगा। उच्छृखलता और स्वच्छन्दता का वह इतना अधिक शिकार हो गया कि वीतरागी भगवान् महावीर की निन्दा करने लगा, उनके संघ के साधुश्रावकों को उनके विरुद्ध भड़काने लगा, यहाँ तक कि उसका प्रतिवाद करने वाले, भगवान महावीर के साधुओं को अपनी तेजोलेश्या से भस्म करने को तत्पर हो गया। भगवान महावीर को भी भस्म करने के लिए उसने अपनी लब्धि का दुष्प्रयोग किया, किन्तु प्रयोग उनकी आत्मिक शक्ति के समक्ष निष्फल हो गया ।1 यह था-साधक जीवन में आई हुई अहंता और स्वच्छन्दता का दुष्परिणाम ! परमात्म-भाव की साधना के पथ में तीखे काँटे जब सफलता प्राप्त या उपलब्धि प्राप्त साधक अहंकार, मद,मत्सर, उच्छखलता और स्वच्छन्दता का शिकार हो जाता है, तब उसकी साधना की प्रगति वहीं ठप्प हो जाती है। उसकी परमात्मभाव-प्राप्ति या मोक्षप्राप्ति की साधना के पथ में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार-ममकार आदि के तीखे कांटे बिछ जाते हैं, जिनके कारण वह आगे गति-प्रगति नहीं कर सकता। जरा-सी भौतिक उपलब्धि के दायरे में वह बंद हो जाता है। फलतः परमात्मभाव की प्राप्ति एवं परमात्मकृपा से उपलब्ध होने वाली अनन्त ज्ञानादि गुणों की सम्पत्ति या शुद्ध आत्म भाव जागृति से वह वंचित हो जाता है। वह कठोर से कठोर क्रियाकाण्ड भी करता है, भयंकर से भयंकर विपत्तियों में भी अडिग रह पाता है, कठिनाइयों और कठोर कष्टों को भी सहता है, परन्तु उसका लक्ष्य अन्तरंग में परमात्मभाव-प्राप्ति का न होकर प्रसिद्धि, प्रदर्शन, प्रतिष्ठा या प्रशंसा की प्राप्ति का हो जाता है, बाहर से तो वह परमात्म-प्राप्ति या परमात्मभाव की उपलब्धि करने और करा देने का ही उद्घोष करता है। इसका मूल कारण है नम्रता, समर्पणता और विनय का अभाव एवं अहंता तथा स्वच्छन्दता का संवर्द्धन । फिर उसकी साधना साध्यलक्षी न होकर अहंकार पोषणलक्षी हो जाती है। वह जिन वीतराग महापुरुषों से उक्त साधना की प्रेरणा पाता है, उनके जीवन एवं गुण-रमरण से उक्त साधना के लिए उत्साहित होता है, अपनी साधना के दौरान उसे जो अदृश्य सहायता १ देखिये-भगवती सूत्र शतक १५ गोशालक-अधिकार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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