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आत्म-समर्पण से परमात्म सम्पत्ति की उपलब्धि | २६१
स्वच्छन्दता का अर्थ - भावार्थ
स्वच्छन्दता का अर्थ है - स्त्र = अपना, छन्द = आदत, व्यसन, कुटेव या अपना मत । अहंता-ममता से उत्पन्न पूर्वोक्त सभी वृत्ति प्रवृत्तियाँ स्वच्छन्दता है । तात्पर्य यह है कि व्यावहारिक, सामाजिक या आध्यात्मिक प्रत्येक क्षेत्र में अन्तर में निहित निरर्थक अभिमान, मद, अहं या गर्व अथवा अपनी मान्यता के इशारे पर चलना स्वच्छन्दता है, जो वोतराग परमात्मा के समक्ष आत्मार्पणता और परम्परा से परमात्मभाव की प्राप्ति में बाधक है ।
अहंता-ममता का प्रवेश भी परमात्वप्राप्ति में बाधक
साधक को बहुधा अपनो साधना में सफलता प्राप्त होने का, साधना में प्रगति का, या किसी प्रकार का सिद्धि या उपलब्धि का जब भान होने लगता है, तब वह प्रायः अहंता-ममता के आक्रमण का शिकार हो जाता है । उक्त सफलता या प्रगति के भान के साथ-साथ साधक प्रायः यह सोचने लगता है कि यह सफलता और प्रगति, अथवा यह उपलब्धि या सिद्धि मेरे अपने ही परिश्रम और कार्यकुशलता या क्षमता का परिनाम है । इस निरपेक्ष एवं अपूर्ण समझ के कारण सूक्ष्मरूप से अहं उसके चित्त में प्रविष्ट होता है । वह उत्तम साधना को सफलता और उपलब्धि पर अपने 'अहं' की मुहर छाप लगा देता है । इस प्रकार वह प्रारम्भिक साधक स्वत्वमोह का शिकार होकर अपनी साधना में सफलता और उपलब्धि का ढिंढोरा पीटता है, अपनी प्रसिद्धि, प्रशंसा, प्रतिष्ठा और प्रदर्शन के चक्कर में पड़ जाता है । वह अपने पुरुषार्थ का बखान करके उसे हो मुख्यता देता है । परमात्मकृपा, परमात्मा के अनुग्रह या परमात्मतत्व के द्वारा अव्यक्तअप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त सहायता का बिलकुल विस्मृत कर देता है । कई बार तो वह उद्धत होकर परमात्म तत्त्व का अवर्णवाद, निन्दा या अप्रतिष्ठा करने लगता है । वह उच्छृंखल और अतिवादी बन जाता है ।
मंखलीपुत्र गोशालक छह वर्ष तक श्रमण भगवान् महावीर का शिष्य रहा । उसने परम आराध्य गुरुदेव जोवन्मुक्त तोर्थंकर महावीर परमात्मा के पास रहकर रत्नत्रय की साधना की, अन्य कई प्रकार की भौतिक सिद्धियाँ प्राप्त कीं। इससे उसके मन में अहंत्व जाग उठा, उनके प्रति समर्पण की भावना अस्त हो गई। अपने पुरुषार्थं का अहंकार इतना बढ़ गया कि वह भगवान् महावार का विद्रोहो बन बैठा । अपनी अहंता
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