SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६० | अप्पा सो परमप्पा आसं च छंदं च विगिंच धीरे-धीर साधक को आशा और स्वच्छन्दता का परित्याग करना चाहिए । आत्मा से परमात्मा बनने में उपर्युक्त सभी स्वच्छन्दताएँ बाधक हैं । आत्मा से परमात्मा होने में लम्बा समय नहीं लगता किन्तु परमात्मा बनने की साधना में, तथा परमात्मा बनने में बाधक तत्त्वों से दूर रहने में काफी लंबा समय लगता है । इसका मूल कारण है-- स्वच्छन्दता । श्रीमद्रायचन्द ने इसी तथ्य का समर्थन करते हुए कहा है -- "रोके जीव स्वच्छन्द तो, पामे अवश्य मोक्ष | पास्या एस अनन्त छे, भाख्युं जिन निर्दोष || 1 शीघ्र परमात्म-प्राप्ति या मोक्षप्राप्ति के लिए स्वच्छन्दता का त्याग करना अनिवार्य है । जीव को अनादिकाल से स्वच्छन्दतापूर्वक चलने ET अभ्यास है । अपनी राग-द्वप मोहलिप्त बुद्धि से, अपनी आदतों और कुटेबों से, अपनी स्वच्छन्द वृत्ति प्रवृत्तियों से, अपनी मनःकल्पित विषय- लिप्सा से, अपने मनोनीत दुविचारों, दुष्कार्यों और दुर्बचनों से वह सुखअभ्यस्त है | वह अपनी दुर्मति-कल्पित या अव्यवसायात्मिका बुद्धि द्वारा अभिमत वृत्ति प्रवृत्ति में किसी का हस्तक्षेप या किसी के द्वारा रोकटोक पसन्द नहीं करता । वह यही सोचता है कि मैं अपनी बुद्धि से सोच-विचार कर ही सब कुछ करता हूँ, वही ठीक है । दूसरों के द्वारा दी गई प्रेरणा, सन्देश, निर्देश, आज्ञा, के अनुसार मैं क्यों चलू ? चाहे दूसरे कितने ही उच्च ज्ञानी हों, वीतराग हों, हितैषी हों. सूझबूझ वाले हों, निष्पक्ष मार्गदर्शक हों, वह उनके आदेश निर्देश के अनुसार नहीं चलना चाहता । आप्त वीतराग महापुरुषों के आदेश निर्देश के अनुसार चलने में, अपनी उद्दाम एवं चंचल वृत्तियों को तथा अपनी नामना- कामना, वासना, लालसा, इच्छा एवं अर्हता-ममता को रोकने में उसके अहं पर चोट पड़ती है । उसका अहं उसकी भूलों, दोषों और अपराधों को समझने ही नहीं देता । ऐसा मिथ्याभिमान, हठाग्रह, मिथ्या अभिनिवेश एवं अहंकार अथवा अष्ट विध मद ही वस्तुतः स्वच्छन्दता है, जो उसे परमात्मभाव की साधना में आगे बढ़ने नहीं देता । यही कारण है आत्मा से परमात्मा बनने की साधना में इस प्रकार की स्वच्छन्दताओं से ग्रस्त साधक को काफी लम्बा समय लगता है । १ आत्मसिद्धि गा. १५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy