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________________ २५८ | अप्पा सो परमप्पा पिता और पुत्र दोनों एक ही जेल की अलग-अलग कोठरियों में बन्द हैं। दोनों की कोठरियाँ अलग-अलग हैं, किन्तु हैं पास-पास ही । किन्तु इतना फासला भी दोनों के लिए हजारों कोस दूर जैसा मानसिक कष्टप्रद हो जाता है । इसी प्रकार परमात्मा और आत्मा के बीच चाहे थोड़ा-सा ही अन्तर हो, लेकिन जब तक कोई यथार्थं उपासक बनकर हृदयस्थ परमात्मा का आस्था और अर्पणतापूर्वक तथा श्रद्धा निष्ठापूर्वक सामीप्य नहीं प्राप्त कर लेता, तब तक थोड़ा-सा अन्तर ही बहुत अन्तर हो जाता है, और भावात्मक सामीप्य हुए बिना उपासना का यथेष्ट लाभ उसे नहीं मिल सकता । पर्युपासना का पूर्णरूप और उसकी उपलब्धि परमात्मा से भावात्मक सामीप्य भी तभी हो सकता है, जब उपासक का हृदय निर्मल, निश्छल, निःस्वार्थ और निष्काम होगा, वह शुद्ध आत्मरूप परमात्मा को हृदयसिंहासन पर विराजमान करके उसके प्रति पूर्ण आस्था, श्रद्धा और विश्वास प्रकट करेगा । कितना भी कैसा भी भय, प्रलो. भन या संकट आये, तब भी वह उसके प्रवाह में न बहकर एकमात्र परमात्मभाव में ही रमण करने का प्रयत्न करेगा । परमात्वतत्त्व को अपने समीप समझकर वह किसी भी बाह्य संकट या विचार से विचलित नहीं होगा । परमात्मभाव से अपनी आत्मा जरा भी पृथक् या विचलित न हो, इसका प्रयत्न करता है । सामायिक के पाठों में परमात्मा की पर्युपासना के पाठ (तिक्खुत्तो) में सबसे अन्त में 'पज्जुवासामि' पद दिया गया है. उससे पूर्व 'वंदामि' (करबद्ध होकर झुकना तथा उनका गुणोत्कीर्तन करना ), 'नमसामि' (नमस्कार करना, बहुमान करना), 'सक्का रेमि-सम्माणेमि' ( सत्कार-सम्मान करना) तत्पश्चात् 'कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं' (कल्याणमंगल- देवरूप तथा ज्ञानस्वरूप मानना) का पाठ है । जो तन, मन, वचन से परमात्मा की पूर्ण उपासना का सूचक है । ऐसी पूर्ण उपासना ही उपासक को परमात्मा के अत्यन्त निकट पहुँचाती है । फिर वह परमात्मा के आदेश, संदेश, आज्ञा एवं आराधना तथा उनकी आवाज को अपनी शुद्ध आत्मा के माध्यम से सुन सकता है, जान सकता है । अतः परमात्मा की सच्ची उपासना उपासक की आत्मा को परमात्मा से - परमात्मभाव से जोड़ देती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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