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________________ आत्मा को परमात्मा से जोड़ती है-उपासना | २५७ 'ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन ! तिष्ठति । भ्रामयन् सर्वभतानि यंत्रारूढानि मायया ॥1 इसका अर्थ है-हे अर्जुन ! ईश्वर माया (कर्मप्रकृति) से (कर्मचक्ररूपी) यंत्र पर आरूढ़ सर्वप्राणियों को (जन्ममरणादिरूप संसार में) परिभ्रमण कराता हुआ, समस्त प्राणियों के हृदय में रहता है। वैदिक दृष्टि से इसका अर्थ चाहे जो हो, जैन दृष्टि से इसका यूक्तिसंगत अर्थ है-अपनी शुद्ध आत्मा ही सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा (ईश्वर) के रूप में प्रत्येक प्राणी के हृदय-देश में स्थित है ओर अपने-अपने कृतकर्मों की प्रकृति उस अशुद्ध आत्मा को विविध गतियों और योनियों में परिभ्रमण कराती रहती है। __ निष्कर्ष यह है कि परमात्मा शुद्ध आत्मा के रूप में प्रत्येक प्राणी के हृदय में विराजमान है। वह अत्यन्त हो निकट है इसलिए उसे पवित्र हृदय वाला व्यक्ति ही दिव्यदृष्टि से देख सकता है । इस प्रकार परमात्मा के अस्तित्व का निश्चय हो जाने पर उनके अनन्तज्ञानादि गुणों पर उपासक आस्था व्यक्त करता है। उनकी स्तुति, गुणोत्कीर्तन तथा स्तवन, स्तोत्र द्वारा तथा वन्दन-नमन, सत्कार-सम्मान एवं बहुमान द्वारा उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करता है. हृदय में दृढ़ विश्वास जमाता है । तत्पश्चात् परमात्मा को स्वच्छ निर्मल, पवित्र हृदयासन पर विराजमान करके उनका सामोप्य प्राप्त करता है। इस प्रकार परमात्मा की उपासना को सर्वांगीण प्रक्रिया पूर्ण करता है । यदि कोई चाहे कि मैं केवल परमात्मा के गुणगानों, स्तोत्रों, स्तवनों, कीर्तनों, नामजप या स्मरण से अथवा केवल वन्दन-नमन तथा सत्कारसम्मान करके उन्हें रिझा लूं, प्रसन्न कर लूं और वरदान प्राप्त कर लूं, तो यह उपासना सच्ची व सर्वांगी उपासना न होकर उपासना का प्रदर्शन या नाटक-सा होगा । सर्वागीण उपासना तो पूर्ण आस्था और दृढश्रद्धा के साथ उन्हें हृदयमन्दिर में विराजमान करके हृदय के तारों को उनके साथ जोड़कर भावात्मक समीपता लाने से ही हो सकेगी। यथार्थ उपासना हुए बिना उसका वास्तविक लाभ नहीं मिल सकेगा। परमात्मा निकट होते हुए भी दूरतर क्यों ? यही कारण है कि तत्त्व को दृष्टि से परमात्मा अति निकट होते हुए भी तथ्य की दृष्टि से दूर-दूरतर बना रहता है। १ भगवद्गीता अ. १८ श्लो. ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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