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________________ आत्मा को परमात्मा से जोड़ती है-उपासना | २५५ त्मक समीपता और तन-मन-वचन से प्रभु के प्रति आस्था नहीं थी, इसलिए आन्तरिक समीपता या निश्चयनय से आत्मिक गुणों की निकटता न होने से वह प्रभु की पर्युपासना न कर सका। फलतः वह हृदय से वीतराग परमात्मा के निकट न पहुँच सका, उसकी आत्मा परमात्मभाव से न जुड़ सकी, जबकि नवदीक्षित गजसुकुमालमुनि शरीर से तो वीतराग अरिष्टनेमि प्रभु के निकट थोड़ी ही देर रहा था, और बारहवों भिक्षुप्रतिमा अंगीकार करके महाकाल श्मशान में कायोत्सर्गमुद्रा में ध्यानस्थ रहा तब भी स्थान और शरीर की दृष्टि से प्रभु से काफी दूर था, किन्तु उनकी आत्मा प्रभु के परमात्मभाव से निकट स्थित हो गई थी। वह भावात्मक दृष्टि के परमात्मा के अत्यन्त समीप होने से परमात्मभाव से जुड़ गये। उनकी वीतराग-परमात्मा की पर्युपासना सफल एवं सार्थक हो गई। मेले-ठेलों में हजारों आदमी एक-दूसरे से अत्यन्त सटकर चलते और वैठते हैं, लेकिन उनमें कोई भावात्मक एकता, हार्दिक निकटता न होने से एक-दूसरे के गुणों से लाभान्वित नहीं होते; जबकि आकाश में स्थित चन्द्रमा की शुभ्र चन्द्रिका को देखकर पृथ्वी पर स्थित कमलिनी खिल उट ती है, क्योंकि दोनों में भावात्मक एकता का तार जुड़ा हुआ है । जैसे कि कहा है "जल में बसे कुमुदिनी, चन्द्र बसे आकाश । जो जाहू के मन बसे, सो ताहू के पास ।।" अतः उपासना की सार्थकता और सफलता तभी है, जब वीतराग-परमात्मा के प्रति उपासक की हृदयतंत्री का तार भावात्मक एकता एवं समीपता से जुड़ा हुआ हो । परमात्मा ऐसे उपासक से क्षेत्र की दृष्टि से दूर होते हुए भी भावात्मक दृष्टि से उपासना के माध्यम से समीप हो जाते हैं । अतः उपासना का फलितार्थ यह हुआ कि क्षेत्र एवं शरीः की दृष्टि से भले ही उपासक से उपास्य परमात्मा दूर हो, किन्तु भावात्मकदृष्टि से उपासक का उपास्य परमात्मा के साथ सामीप्य हो, परमात्मभाव के साथ उपासक की आत्मा जुड़ी हुई हो। मान लीजिए आप जहाँ बैठे हैं, उसके नीचे की पृथ्वी के गर्भ में लाखों टन सोना-चाँदी आदि बहुमूल्य धातुएँ हों, भले ही आप उस जमीन पर बैठे हों, उस जमीन के मालिक भी हों, फिर भी आप उससे लाभान्वित या आनन्दित नहीं हो पाते, क्योंकि उसके साथ आपकी भावात्मक समीपता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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