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________________ २५४ | अप्पा सो परमप्पा का ही प्रतिफल है। निष्कर्ष यह है कि आत्मा के अनुजीवी गुणों पर चार आवरण हैंउसके ज्ञान पर आवरण, दर्शन पर आवरण, शक्ति (वीर्य) पर आवरण और आनन्द (आत्मसुख) पर आवरण । ये चारों आवरण आत्मा को ससीम बना देते हैं। जिसके कारण ज्ञान और दर्शन आवृत हो जाते हैं, आत्मशक्ति परभावों की विविध दिशाओं में स्खलित होने लगती है, आत्मिक आनन्द में विकृतियों का ज्वार-भाटा आता रहता है। किन्तु सच्ची उपासना की तीव्रता से वह 'चंदेसु नि मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा, तथा सागरवरगंभीरा1 --हो जाता है। अभिप्राय यह है कि उसका दर्शन चन्द्रों से भी निर्मलतर (विशुद्ध) हो जाता है, उसका ज्ञान सूर्यों से भी अधिक प्रकाशतर बन जाता है तथा उसके आनन्द एवं शक्ति का समुद्र क्षीरसागर से भी अधिक उज्ज्वल और गहन हो जाता है। वह चारों ही आत्मगुणों में ससीम से असीम बन जाता है । ___ उपासना से परमात्मा के प्रति तन्मयता, तल्लीनता और एकाग्रता प्राप्त होती है, जो आत्मा में छिपे हुए परमात्मा के बीज को अंकुरित करती है, और एक दिन वे अंकूर वृद्धिंगत होते-होते स्वयं विशाल, परमात्म वृक्ष का रूप ले लेते हैं। उपासना का अर्थ और फलितार्थ प्रभ-उपासना के माहात्म्य और लाभ को समझ लेने पर सहसा यह जिज्ञासा होती है कि उस 'उपासना' का क्या अर्थ और फलितार्थ है, जो आत्मा को परमात्मा के निकट पहुँचा देतो है, परमात्मा से जोड़ने वाली है ? उपासना में 'उप' और 'आसना' ये दो शब्द हैं। 'उप' का अर्थ हैसमीप, 'आसना' का अर्थ है-स्थिति=बैठना। अर्थात्--उपासक का उपास्य वीतराग-परमात्मा के समोप (सान्निध्य में) बैठना ही उपासना है । किन्तु केवल वीतराग प्रभु के निकट बैठने, सान्निध्य में रहने मात्र से सच्चे मायने में परमात्मा की उपासना नहीं होती । मखलीपूत्र गोशालक श्रमण भगवान महावीर का छह वर्ष तक अन्तेवासी शिष्य वनकर रहा। वह भगवान् महावीर के पास ही बैठता-उठता रहता था, तथा समीप हो रहता था; किन्तु भगवान् महावोर के प्रति उसकी हार्दिक निकटता, भावा १ चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) का पाठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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