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आत्मा को परमात्मा से जोड़ती है-उपासना | २५३
अनन्तदर्शन का प्रकाश क्रमशः मिलता जाता है और एक दिन परमात्मा के परिपूर्ण दर्शन के प्रकाश से उसकी दृष्टि पूर्णतया खुल जाती है, पूर्ण निर्मल हो जाती है। फिर उसकी दृष्टि इतनी सुदृढ़ और परिपक्व हो जाती है कि परमात्मभावों या शुद्ध आत्मगुणों की छोड़कर संसार की निकृष्ट वासनाओं, राग-द्वेष, कषाय, काम, मोह की ओर नहीं जाती। जिस प्रकार मिठाई पर बैठी हुई सामान्य मक्खी को आप उड़ाएँगे तो वह समीप ही पड़ी हुई विष्ठा पर जाकर बैठ जाएगी, परन्तु मधुमक्खी और भौंरों को आप फूल से हटाएँगे तो वे पुनः आकर फूल पर ही बंटेंगे, विष्ठा पर कदापि नहीं।
इसी प्रकार वीतराग परमात्मा के अनन्य उपासक को भी आप उपासना से हटाना चाहेंगे, या परमात्मभाव प्राप्ति के आत्मिक गुणों से हटाना चाहेंगे तो भी वे पुनः उसी में तन्मय हो जाएँगे, परन्तु हिंसा, असत्य आदि पर तथा परपदार्थों या विषयों में आसक्ति की गन्दगी पर उसका मनोभाव नहीं जाएगा।
इसी प्रकार उपासना के माध्यम से उपासक जैसे-जैसे परमात्मा की ओर गति-प्रगति करता जाता है, वैसे-वैसे उसका उत्साह, साहस, पराक्रम और आत्मशक्ति बढ़ती जाती हैं, उसकी क्षमता, सामर्थ्य और योग्यता में ज्वार आता जाता है, आत्मशक्ति के अवरोध समाप्त होते जाते हैं। उसमें वीतरागता, आत्मभावों में रमणता, समता, क्षमा, सहिष्णुता, तपस्या आदि की शक्ति के सारे स्रोत प्रवाहित हो जाते हैं। और परमात्मा की अनन्तशक्ति एक दिन उस में अवतरित हो जाती है। यह है उपासना का चमत्कार !
इसी प्रकार उपासना के माध्यम से साधक ज्यों-ज्यों परमात्मभावों की ओर अपने चरण बढ़ाता जाता है, त्यों-त्यों परमात्मा के अचल, स्थिर, अबाधित एवं असोम आनन्द का गहन सिन्धु उसमें उमड़ता चला जाता है। तब विषयसूखों की लालसा, परपदार्थों में सुखान्वेषण की वत्ति, तथा राग-द्वेष, कषाय, मोह, काम, ममत्व, कामना, प्रसिद्धि आदि में सुख ढूंढने की लिप्सा से दूर होता जाता है। और एक दिन पारमात्मिक आनन्द का अथाह सागर उसकी आत्मा में लहरा उठता है। आत्मिक-. आनन्द के सागर की उमियाँ उसके चरण पखारने लगती हैं। यह उपासना
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