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________________ -२५२ | अप्पा सो परमप्पा यह निश्चित है कि यदि कोई उपासक सच्चे हृदय से उपास्य के - गुणों में स्वयं को जितना अधिक तन्मय एवं तल्लीन कर लेता है, वह उपास्य परमात्मा से उतना ही अधिक भावात्मक सामीप्य बढ़ा लेता है, और गुणों में उतना ही अधिक उनके समान बन जाता है, उपास्य के शक्ति तथा आनन्द, ज्ञान-दर्शन आदि गुणों का सामर्थ्य उसी अनुपात उपासक में आ जाता है । प्रख्यात प्राकृतिक चिकित्सा विशेषज्ञ 'डा० लिण्डलहर' ने अपनी पुस्तक प्रेक्टिस ऑफ नेचुरल थेरोप्युटिक्स में लिखा है कि "साधक अपने मानवीय हृदय में सर्वव्यापी परमात्म (ब्रह्म) सत्ता, किसी देवसत्ता, अदृश्य देवदूत, सिद्धपुरुष या महान सद्गुरु (जो भले ही दूरस्थ हों) को प्रतिष्ठित करके उनसे अपने मनोभावों को जोड़कर उनकी विचारणाओं, भावनाओं, और अनुभूतियों को समझ लेता है, आत्मसात् कर लेता है, इतना ही नहीं, अपने इष्ट के भौतिक आध्यात्मिक परमाणुओं या शारीरिक-मानसिक क्रिया-प्रक्रियाओं की अनुभूतियाँ भी उसमें विलक्षण रूप से अवतरित, परिणत एवं आकर्षित हो जाती हैं ।" उपासना से परमात्मा की असीमता को उपलब्धि परमात्मा की उपासना से सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि उपासक भावात्मक दृष्टि से, अर्थात् - निश्चयनय की अपेक्षा से जैसे-जैसे परमात्मा की ओर बढ़ता जाता है और उसी दिशा में उपासक का प्रयाण और पुरुषार्थ होता है, वैसे-वैसे सीमाएँ समाप्त होती चली जाती हैं, कर्मों के आवरण भी उसी प्रकार हटते जाते हैं, जिस प्रकार सूर्य पर आया हुआ आवरण हट जाता है । और एक दिन केवलज्ञान रूपी सूर्य पूर्णरूप से प्रकट हो जाता है । यही है आत्मा से परमात्मा होने की स्थिति, जो सच्ची उपासना से प्राप्त होती है । जिस प्रकार चन्द्रमा अमावस्या की रात्रि में पूर्णतया ढक जाता है और फिर शुक्ल पक्ष में द्वितीया से उसका प्रकाश क्रमशः अनावृत होता जाता है, तथा पूर्णिमा के दिन वह चन्द्रमा अपनी सोलह कलाओं से पूर्ण रूप से खिल उठता है, प्रकाशित हो जाता है, उसी प्रकार जिस उपासक की दृष्टि (दर्शन) एक दिन अज्ञान-अदर्शन आदि से पूर्णतः आवृत थी, वह परमात्मा की उपासना से क्रमशः आगे बढ़ता जाता है, उसे परमात्मा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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