________________
२५० | अप्पा सो परमप्पा
वाला भयंकर हत्यारा-दृढ़प्रहारी क्या एक परम पवित्र साधु की संगति पाकर पवित्र महात्मा नहीं बन गया था ? इसी प्रकार राजगृही नगरी के १,१४१ व्यक्तियों की हत्या करने वाला यक्षाविष्ट अर्जुन मालाकार भी एक दिन वीतराग परमात्मा भगवान् महावीर का सत्संग पाकर, उनकी हार्दिक उपासना का सान्निध्य पाकर परम पवित्र महात्मा और अन्त में परमात्मा बन गया था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उपासना में उपास्य परमात्मा की संगति से भी व्यक्ति का जीवन वीतरागता के गुणों से युक्त बन जाता है । तब फिर उपासना को उपयोगिता और महत्ता को जानते हुए भी लोग क्यों परमात्मा की भावात्मक समीपता एवं सान्निध्य से दूर रहते हैं, और अपराधियों, दुर्गुणियों एवं दुराचारियों के सान्निध्य में रहकर जानबूझ कर अपने आपको अनेक प्रकार के कठोर कष्टदायक परिस्थितियों में, तथा आफतों में डालते हैं ?
उपासना से समग्र जीवन-परिवर्तन श्वेताम्बिका नगरी के राजा प्रदेशी का जीवन एक दिन परदेशी अर्थात्-हिंसा, क्रूरता, नास्तिकता, वैभव-विलास की प्रचुरता आदि विभावों-परभावों में विचरण करने वाला बना हुआ था, वह आत्मदेशीय यानी स्वभाव-स्वगुणनिष्ठ नहीं था। किन्तु के शीश्रमण मुनिवर की पयुपासना--बार-बार की, तन-मन-वचन द्वारा की गई उपासना=सत्संगति से प्रदेशी राजा के जीवन ने प्रकदम पलटा खाया। वह अरमणीक से रमणीक बन गया, परभावनिष्ठ से स्वभावनिष्ठ बन गया, परदेशी से आत्मदेशी बन गया । राग-द्धष, काम, मोह, क्रोधादि कषाय मद मत्सर आदि विभावों और हिंसादि विकारों में तथा वैषयिक सुखों में अहनिश रमण करने वाली उसकी कषायात्मा के शीश्रमण गुरु की पर्युपासना से अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य (शक्ति) और आत्मिक सुख से परिपूर्ण शुद्ध आत्मा में रमण करने लगी। यही कारण है कि उन्होंने अपने शरीर तथा शरीर से सम्बद्ध धन-सम्पत्ति, राज्य, सुख-सामग्री, वैभवविलास, रागरंग, महल, रानी-राज कुमार आदि पर भी ममत्व का त्याग कर दिया। एकमात्र आत्मचिन्तन, आत्मध्यान, एवं स्वभाव में ही रत रहन लगे, आत्मा से परमात्मा बनने की दिशा में उनकी दौड़ प्रारम्भ हो गई। वे अपनी पौषधशाला में पौषधव्रत धारण करके आत्म गुणों के विकास में पुरुषार्थ करने लगे। सूरीकान्ता रानी द्वारा विष मिश्रित भोजन खिलाने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org