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________________ आत्मा और परमात्मा के बीच की दूरी कैसे मिटे ? | २४३ शास्त्रीय भाषा में संवर निर्जरा और अन्त में मोक्ष कहते हैं। संसारस्थ भव्य जीवों में संसारयोग्यता और मुक्तियोग्यता दोनों प्रकार के स्वभाव आविर्भावतिरोभाव के रूप में या मुख्य-गौण रूप से पाये जाते हैं । जब एक स्वभाव प्रकट होता है तो दूसरा स्वभाव छिप जाता है। अभव्यजीवों में सिर्फ एक संसारयोग्यता स्वभाव ही होता है । गुणकरण की प्रक्रिया आत्मा के स्व-पुरुषार्थ से होती है । कर्मों को आते हुए रोकना और पुराने बंधे हुए कर्मों को तपस्यादि द्वारा क्षय करना अथवा आश्रव का त्याग और संवर का ग्रहण करना भी साधक की अपनी आत्मा के हाथ में है। आत्मा जब यह कतई नहीं चाहेगी कि वह कर्मबन्धन करे या कर्मबन्ध में पड़े, तब वह प्रतिक्षण सावधान और जागृत रहकर कर्मबन्ध के कारणों से दूर रहेगी, नये कर्मों को आने से रोकेगी, उदय में आये हए पुराने कर्मों का फल समभाव से भोगेगी अथवा उदयाभिमख न हुए हों, उनकी उदीरणा करके उनको क्षीण करने का पुरुषार्थ करेगी। इस प्रकार गुणकरण में प्रवृत्त होगी। इस प्रक्रिया में प्रवृत्त होने पर गुरुकृपा या वीतराग परमात्मा या तीर्थंकर व ज्ञानी पुरुषों का अनुग्रह स्वत: निमित्त के रूप में प्राप्त हो जाता है । युजनकरण (आव) को रोकने से ही ऐसा गुणकरण होता है। और यूजनकरण रुकेगा, प्रतिक्षण आत्मा के ज्ञानादि निजगुणों में स्थिर होने से । जो पूर्वोक्त अन्तर को मिटाने का सुगम उपाय है। निश्चयदृष्टि से तो आत्मा जब स्वरूप में-स्वभाव में-स्वगुणों में स्थिर हो जाती है, तब गुणकरण होता है, किन्तु व्यवहार दृष्टि से व्यक्ति जब पंचमहाव्रत या पंचअणुव्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान आदि का सम्यक पालन कर रहा हो, पांच समिति एवं तीन गुप्ति के पालन में उपयोगसहित उद्यम करता हो, द्वादश विध अनुप्रेक्षा, क्षमा आदि दशविध श्रमणधर्म, एवं बाह्य-आभ्यन्तर तप, परीषहविजय, कषाय-उपशमन तथा राग-द्वेष के उपशान्त करने में पुरुषार्थ कर रहा हो, तब आश्रवों का निरोध एवं कर्मों का क्षय कर देता है। तात्पर्य यह है कि आश्रव का निरोध करके आत्मा जब संवर एवं निर्जरा में प्रवृत्त होती है, तब गुणकरण होता है। इस प्रकार के गूणकरण को अपनाकर अपनी आत्मा और परमात्मा के बीच बढ़ते जाने वाले अन्तर को मिटाया जा सकता है । १ अन्यतोऽनुग्रहोऽप्यत्र तत्स्वाभाव्य निबन्धनः। -योगबिन्दु (हरिभद्रसूरिकृत) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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