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२४२ | अप्पा सो परमप्पा
मानवात्मा को दबाते रहते हैं, ये सब भावकर्म के बीज हैं, जो द्रव्यकर्मों को निमंत्रित करते रहते हैं । इस प्रकार आत्मा के कर्मों के साथ जुड़ने की प्रक्रिया को यंजनकरण कहते हैं। योगीश्वर आनन्दघनजी के कथनानुसार इस गुंजनकरण से ही आत्मा की परमात्मा से दूरी होती है, परमात्मा से आत्मा का अन्तर बढ़ता जाता है ।
आत्मा को परमात्मा से दूरी कैसे दूर हो ?
संयोग से - भावकर्म - द्रव्यकर्मों के आस्रव और बन्ध होता है और उससे यानी युंरंजनकरण से वह आत्मा परमात्मभाव से दूरातिदूर होता जाता है, वह जन्म-मरणादिरूप संसार में परिभ्रमण का दुःख भोगता रहता है । अभिप्रायः यह है कि सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा के साथ ऐसे संसारी जीव के मिलने में अन्तराय का प्रमुख कारण पूर्वोक्त युंजनकरण की क्रिया है । इस तथ्य को जो भलीभांति समझ लेता है, वह आत्मार्थी मानव गुणकरण की प्रक्रिया को अपना लेता है, तब संयोग से- युंजनकरण से छुटकारा हो जाता है, और तब आत्मार्थी साधक आत्मा की परमात्मा से दूरी को मिटा सकता है ।
जैन आगमों के अनुसार आत्मा की यह सहज प्रक्रिया तीन करणों में विभक्त है - युं जनकरण, गुणकरण और ज्ञानकरण । आत्मा जब अपने स्वभावों - ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य में अथवा वास्तविक गुणों-ज्ञानदर्शन - चारित्र में रत या स्थिर होकर किया करता है, उस क्रिया को 'गुणको करण' कहते हैं। तीसरी जो ज्ञानकरण की क्रिया है, वह वस्तु वस्तुस्वरूप से जानने-पहचानने की क्रिया है । इसका समावेश, गुणकरण में ही हो जाता है । योगी आनन्दघनजी ने स्पष्ट कहा - गुणकरणे करो भंग | 2 अर्थात् आत्मा को परपदार्थों, विशेषतः कर्मों के साथ संयोग-युं जनकरण से मुक्त करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय गुणकरण है । गुणकरण में प्रवृत्त होना ही आत्मा और परमात्मा के बीच में पड़े हुए अन्तर (दूरी) को मिटाने का अचूक उपाय है । दूसरे शब्दों में कहें तो आत्मा के साथ कर्मों के संयोग (बन्ध) के कारण संसारयोग्यता नामक स्वभाव का प्रगट होना युंजनकरग है, भाव-आश्रव है, और आत्मा को मोक्ष की ओर ले जाने वाले मुक्ति (परमात्मपाद - प्राप्ति ) योग्य स्वभाव का प्रकट होना गुणकरण है । इसे ही
आनन्दघन चौबीसी पद्मप्रभस्तवन
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