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आत्मा और परमात्मा के बीच की दूरी कैसे मिटे ? | २४१
मुनि आत्मजागृति से युक्त थे, और आत्मनिष्ठा के प्रति अप्रमत्त थे । अतः वे आत्मा को भूलकर परपदार्थों के मोह-ममत्व जनित संयोग में नहीं फँसे । उनकी आत्मा बोल उठी
सव्वं विलवियं गीयं सव्वं नटं विडंबियं ।
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सव्वे आभरणा भारा, सव्बे कामा दुहावहा ॥
भावार्थ यह है- ये सारे गीत आत्मसंगीत नहीं, किन्तु आत्मार्थी के लिए विलाप रूप हैं । सारे नृत्य आत्मभावों में रमणता रूप नहीं, किंतु विडम्बना रूप हैं, जो कर्मों के इशारे पर नचाने वाले हैं । सभी आभूषण आत्मा को सजाने एवं शोभायमान करने वाले गुणरूप आभूषण नहीं, किन्तु भाररूप हैं तथा सभी काम भोग दुःखावह हैं, वे आत्मिक सुख मनुष्य को वंचित कर देते हैं ।
संक्षिप्त में सार है कि वे आत्मनिष्ठमुनि परपदार्थों के संयोग के जाल में नहीं फँसे । फलतः वे अपने समस्त कर्मों को काट कर सिद्ध-बुद्धमुक्त बन गए । इसके विपरीत उक्त चक्रवर्ती को मुनि द्वारा समझाये जाने पर भी कम से कम शुभभावों में रत रहने की प्रेरणा करने पर भी वह नहीं संभला नहीं समझा। वह मोहक परपदार्थों के जाल में फँसा रहा । फलतः आत्मभाव एवं परमात्मभाव से तथा शुभभावों से भी सर्वथा विमुख होने से दुष्कर्मों के कारण परमात्मप्राप्ति से दूरातिदूर रहा, नरक गति का मेहमान बना । ये परपदार्थों के संयोग से दुःख और आत्मस्वरूप में लीनता से आत्मिक सुख के जीते-जागते ज्वलन्त उदाहरण हैं ।
संयोग से ही कर्मों का आस्रव और बन्ध
ये सब बाह्य पदार्थ मनुष्य की संयोगलिप्सा के कारण उस पर हावी हो जाते हैं । वे मनुष्य को अपने इशारे पर नचाते रहते हैं । उसे एक क्षण भी चैन से नहीं बैठने देते । इन बाह्य पदार्थों व्यक्तियों या विषयों से संयोग के कारण कभी मोह, कभी राग, कभी शोक, कभी द्व ेष, कभी घृणा, कभी काम, क्रोध, क्षोभ या मद, मत्सर था ईर्ष्याभाव आदि उस
१ (क) उत्तराध्ययन सूत्र अ. १३ गा. १६
(ख) बालाभिरामेसु दुहाव हेसु न तं सुहं कामगुणेसु रायं । वित्तकामाण तवोधणाणं, जं भिक्खुणं सीलगुणे रयाणं ।।
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- उत्तरा . अ. १३ गा. १७
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