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________________ २४० | अप्पा सो परमप्पा योग मिलता है। फलतः नशैली मादक चीजें खा-पीकर या यौन उत्तेजना के शिकार होकर अथवा इन्द्रिय-तृप्ति के विविध साधन अपनाकर वे अपने गम को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। भीतर से अकेलापन और आत्मचिन्तन के अभाव में खोखलापन उन्हें मृतकवत् किसी तरह जीने को बाध्य करता है। पर-पदार्थ-संयोग से मनुष्य उन-उन पदार्थों और विषयों का गुलाम एवं पराधीन बन जाता है। वह सर्वशक्तिमान आत्मा अपना स्वामी बनने के बदले पर-पदार्थों का गुलाम बन जाता है। अपनी इस मानसिक दुर्बलता के कारण विविध पदार्थों और विषयों के संयोग से सूख शान्ति पाने के बदले दुःख-दर्द, बेचैनी और अशान्ति ही पाता है। संयोगयुक्त और संयोगमुक्त का उदाहरण उत्तराध्ययन सूत्र में प्रतिपादित चित्त सम्भूतीय अध्ययन में इसी तथ्य को उजागर किया गया है । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का जीव इससे पूर्व संभूति के भव में उत्कृष्ट तपस्वी मुनि था, किन्तु आत्मा की सिद्धि और शक्ति को भूल कर पर-पदार्थरूप लब्धि के चक्कर में पड़ा और अपनी आत्म-शक्तिरूप तपस्या के प्रभावरूप चक्रवर्तीपद की ऋद्धि-समृद्धि को पाने का कामना. युक्त-संकल्प (निदान) कर लिया। वह अगले जन्म में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बना, और परपदार्थों के मोह-ममत्व में ऐसा फंसा कि आत्मा-परमात्मा का भान ही नहीं रहा । इतना ही नहीं, चित्तमूनि के जीव, जो इस भव में भी आत्मनिष्ठ निर्ग्रन्थ मुनि बन गये थे। संयोगवश उनका मिलन उक्त चक्रवर्ती के साथ हुआ, तब ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने उन्हें परपदार्थों के संयोग में फंसाने के लिए सुन्दर रमणियों, राजमहल, पाँचों इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों के उपभोग, गीत, नृत्य, आभूषण, वस्त्र एवं स्वादिष्ट भोजन-पान आदि का प्रलोभन दिया और साधुजीवन को त्यागकर विलासी राजसी गृहीजीवन अंगीकार करने का अत्यन्त आग्रह किया। लेकिन वे निर्ग्रन्थ १ उत्तराध्ययन सूत्र अ० १३ गाथा १३-१४ । उच्चोदए महु कक्के य बम्भे, पवेइथा, आवसहा य रम्मा । इमं गिहं चित्तधणप्पभूयं, पसाहि पंचालगुणोववेयं ॥१३॥ नहिं गीएहिं य वाइएहिं नारीजणाई परिवारयंतो।। भुजाहिं भोगाई इमाहं भिक्खु! मम रोय पव्वज्जा हु दुक्खं ॥१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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