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________________ आत्मा और परमात्मा के बीच की दूरी कैसे मिटे ? | २३६ पाने के लिए एड़ी से चोटी तक पसीना बहाते रहते हैं। अपने अहंकार को चारा-दाना देने में वे सुख मानकर वे इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं। ऐसे अदूरदर्शी आत्मविमुख जन मनःकल्पित सुख की भागदौड़ में अपने स्वार्थ की या अपनी इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति हो सके, अपने अहं. कार-ममकार की तुष्टि हो सके, ऐसे प्राणियों या मनुष्यों से आसक्ति, ममता एवं मुर्छा से युक्त स्नेह-सम्बन्ध जोडते हैं, मोहजनित सम्पर्क बढाते हैं। ऐसे ही स्त्री-पुरुषों, पुत्र-पुत्रियों या भाई-बहिनों के साथ मोह-सम्बन्ध रखते हैं, संतान के लिए लालायित रहते हैं। परन्तु जब वे उनके मन के विपरीत हो जाते हैं, अनिष्टकारक एवं दुःखदायक प्रतीत होने लगते है, तब उनका मनःकल्पित सुख का महल सहसा धराशायी हो जाता है। तब उनकी आँखें खुलती हैं कि परपदार्थों या विषयों के प्रति मोह-ममत्वजनित संयोग से सुख की कल्पना कितनी निःसार, थोथी, पराधीन, क्षणिक और धोखादेह है । जिन वस्तुओं या व्यक्तियों में अज्ञजन सुख की कल्पना करके उनसे संयोग या सम्पर्क करते हैं, मोहवश उन्हें अपनाते हैं, वे ही वस्तुएँ या व्यक्ति आजचलकर प्रायः दुःख रूप सिद्ध होते हैं; तथा शोक, चिन्ता, विलाप, आर्तध्यान, सन्ताप, क्लेश, दैत्य और पराधीनता के दुःख से व्यक्ति को खिन्न कर देते हैं। इस प्रकार अज्ञजन आत्मा से भिन्न परपदार्थों में सुख की कल्पना करके उन्हें अपनाते हैं, उनमें आसक्ति करके अपने लिए विविध दुःखों की सृष्टि कर लेते हैं। और इन्द्रियों के जिन विषयों को वे एक समय मोहवश सुख को कल्पना करके अपनाते हैं, दूसरे समय वे ही विषय या पदार्थ उसके लिए दुःखकारक, अनाकर्षक, अरुचिजनक एवं उबाने वाले बन जाते हैं। फलतः उन-उन पदार्थो के न मिलने से पूर्व आतुरता तथा मिलने के पश्चात् घृणा, अरुचि, असन्तोष या व्याकुलता आदि होने से संयोगजनित सुख की भ्रान्ति दुःखरूप में परिणत होती जाती है । अमरीका आदि सर्वाधिक धन और सुख-साधनों से सम्पन्न देशों के मनुष्य प्रचुर सुख-साधनों से संयोग होने के बावजूद भी शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत पिछड़े, बेचैन, खोखले और दुःखी हैं । इन प्रचुर आत्म-बाह्य पदार्थों के साथ संयोग के कारण बढ़ती हुई व्यस्तता, चिन्ता, ईर्ष्या, सद्भावना एवं सामाजिक सहयोग के ह्रास के कारण न किसी को किसी पर विश्वास है और न ही कठिन समय में किसी का सह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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