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________________ २३८ | अप्पा सो परमप्पा सुख की कल्पना करता है। जिह्वा से स्वादिष्ट मनोज्ञ वस्तु का स्वाद लेने में तृप्ति-सुख की कल्पना करता है। कानों से मधुर संगीत, गायन, सुरीला स्वर या अपनी स्तुति, प्रशंसा या प्रसिद्धि के शब्द सुनकर मन में तृप्ति का आनन्द मानता है । नाक से भीनी-भीनी मधुर सुगन्ध का स्पर्श होते ही उसे सुखकर समझता है, मन में ललक उठती है कि बार-बार ऐसी सुखद सौरभ मिला करे। आँखों से मनोज्ञ एवं रुचिकर रूप या दृश्य देखकर सुख की कल्पना करता है। स्पर्शेन्द्रिय से कोमल, गुदगुदा एवं मनोज्ञ स्पर्श पाकर बह सुख की कल्पना में डूब जाता है । विषयों के संयोग से सुख की कल्पना करने वाले अज्ञानीजन उन विषयसुखों के लिए अपने मनोऽनुकूल सूखसामग्री का चयन और संचय करते हैं। वे विषयसुख-साधन बार-बार मिलते रहने, उनका कभी वियोग न होने, अपने कब्जे में होने अथवा उन पर मेरेपन की छाप लगाने तथा उन विषयों का उपभोग करने के लिए धन, मकान, वस्त्र, आभूषण तथा विभिन्न साधन जुटाने में सुख की मधुर कल्पना करते हैं । परन्तु धर्मशास्त्रों की हितशिक्षा को वह भूल जाता है कि इन परपदार्थों या विषयों के संयोग दुःखोत्पत्ति के कारण है । भगवद्गीता में स्पष्ट कहा है 'ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय ! न तेषु रमते बुधः ॥1 ये जो इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले भोग हैं, वे दुःखों के जनक = उत्पत्तिस्थान हैं, आदि-अन्तवालेनाशवान हैं । हे अर्जुन ! दूरदर्शी ज्ञानीजन इनमें आसक्त नहीं होते। ऐसे क्षणिक सुख की आकांक्षा में भटकते हुए अज्ञ लोग अपने रंगीन सपने संजोते रहते हैं; जो उन्हें अपनी कामनापूर्ति के लिए ठाठ-बाट, आडम्बर, तड़क-भड़क और खर्चीली अमीरी सामग्री की विडम्बनाएँ रचने के लिए बाध्य करते रहते हैं। उच्चस्तरीय, सुसम्पन्न, धनाढ्य और बड़ा आदमी कहलाने में वे ऐसा ही सुख महसूस करते हैं। इसी कारण वे अनापसनाप सुखसामग्री, भोग के विविध साधन और धन जुटाने में अहर्निश लगे रहते हैं । सत्ता, प्रतिष्ठा, पद और अधिकार पाने में सुख समझकर वे इन्हें १ भगवद्गीता अ. ५ श्लो, २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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