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________________ आत्मा और परमात्मा के बीच की दूरी कैसे मिटे ? | २३७ निधान परमात्मा से उक्त आत्मा को दूर करता है। आत्मा की परमात्मा से अभिन्नता तभी हो सकती है, जब वह परपदार्थों के साथ ऐसा संयोग न करे। मिथ्यादृष्टि परपदार्थों के संयोग को सुखकर समझता है मिथ्यादृष्टि या अज्ञानी मानव पदार्थनिष्ठ या परपदार्थ संयोगजन्य सांसारिक या वैषयिक सुखों को सुख समझते हैं । वे आत्मा से भिन्न बाह्य परपदार्थों में सुख की कल्पना करते हैं। परन्तु वे नहीं जानते कि इन परपदार्थों के संयोग से जो क्षणिक सुख हैं, वे चिन्ता, व्याकुलता, अशान्ति, व्यग्रता, आधि-व्याधि-उपाधि आदि अनेक दुःखों से घिर जाते हैं । वे सभी दुःखमूलक सुखाभास हैं, वे सभी प्रतीत होने वाले सुख स्वाधीनतानाशक हैं, पराधीन हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी के कथनानुसार-- ___ 'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ।1 पराधीनताजन्य सुख में दुःख का बीज छिपा हुआ है । परपदार्थों के अधीन सुख वास्तविक सुख है ही नहीं। गगन में उन्मुक्तविहारी किसी तोते को कोई सोने के पिंजरे में बन्द कर दे और उसे सूखे मेवे, मिष्ठान्न आदि भरपेट खिलाए तो भी वह सोने के पिंजरे में बन्द तोता स्वयं को कदापि सूखी नहीं मानता। इसी प्रकार आत्मिक सुखों में रममाण शुद्ध बुद्ध आत्मा को यदि कोई ऋद्धि-सिद्धि-प्रसिद्धि, सम्पत्ति, मणि-माणिक्य आदि रत्नों या आलीशन बंगलों, कार, कोठी आदि का प्रलोभन दे तो क्या वह इन परपदार्थों में या सूख-सुविधाओं में अपनी आत्मा को फंसा सकता है ? मिथ्यादृष्टि या अज्ञानो ही परपदार्थों को आसक्ति में फंसकर अपनी आत्मा को दुःख में डालता है। आत्मिकसुखनिधान परमात्मा से दूर कर लेता है। मनुष्य का यह भयंकर भ्रम है कि अमुक पदार्थ या अमुक व्यक्ति से मुझे सुख होगा। वस्तुतः कोई भी व्यक्ति या कोई भी पदार्थ किसी को सुख या दुःख देने में समर्थ नहीं है। अतः अमुक व्यक्ति या पदार्थ का ममत्वयुक्त संयोग कभी सुखकारक नहीं हो सकता। ममत्व के कारण राग-द्वष उत्पन्न होते हैं । फलतः दुःख ही होता है। किन्तु अज्ञानी मानव मोह-ममत्व आदि विकारवश इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों से सम्पर्क करता है । वह पांचों इन्द्रियों के उपभोगरूप सम्पर्क से १ रामचरितमानस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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