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________________ २३६ / अप्पा सो परमप्पा और होना चाहिए, जिसके होने पर जीव को दुःखों के अनुभव करने का सिलसिला प्राप्त होता है। जैनदर्शन की दृष्टि से संयोग का अर्थ या अभिप्राय यही है कि विद्यमान या अविद्यमान, इष्ट या अनिष्ट, स्वाधीन या पराधीन, सजीव या निर्जीव पर पदार्थों के प्रति मोह, ममत्व, आसक्ति, लोभ, लालसा, तृष्णा, राग, अहंकार, हठाग्रह, कपट (माया) आदि अथवा द्वेष, घृणा, अरुचि, भय, क्रोध, आक्रोश आदि से प्रेरित होकर सम्पर्क करना, संघर्ष करना, स्पर्श करना, लगाव रखना, बार-बार उक्त विकारों से प्रेरित होकर ग्रहण करना, इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति के लिए ललचाना, लालसा एवं तृष्णा करना, उनके वियोग में आतध्यान करना, निमित्तों से संघर्ष करना या रौद्रध्यानवश उनका अनिष्ट करने का विचार-दुश्चिन्तन करना, ममत्ववश किसी भी सजीव (परिवार पत्नी, पुत्र, भाई-बहन, संघ, समाज, राष्ट्र आदि) पदार्थों से तथा निर्जीव (मकान, शरीर, इन्द्रियाँ, दूकान, वस्त्र, बर्तन-पात्र) या विचार या झूठी मान्यता, मिथ्यात्व आदि पदार्थों से सम्बन्ध जोड़ना, सम्पर्क करना या उन पर आसक्ति या मूर्छा करना संयोग है। इस प्रकार का संयोग ही सच्चे माने में पर-पदार्थ-संयोग है, जो जीव को जन्म-मरणादि के या अन्य शारीरिक-मानसिक दुःखों में डालता है। आर्थिक संकट, विपत्ति, व्याधि, पीड़ा, चिन्ता, उपाधि, तनाव, प्राकृतिक प्रकोप, विविध समस्याएँ, उलझनें, अड़चनें, विघ्न-बाधाएँ, भय, अशान्ति, व्याकुलता आदि सभी दुःख इसी प्रकार के संयोग से जनित हैं। बाह्य विभूति, धन-सम्पत्ति, ऋद्धि-सिद्धि, प्रसिद्धि, प्रशंसा, कीति, कूटम्बपरिवार, संघ, समाज, सम्प्रदाय आदि वस्तुओं के प्रति मोह, ममत्व, तृष्णा, लालसा, मूर्छा, लोलुपता, आसक्ति आदि विकारों से युक्त जितने भी संयोग हैं, वे सब दुःख, अशान्ति, व्याकुलता, चिन्ता आदि बढ़ाने वाले हैं । ये संयोग जहाँ भी, जिस व्यक्ति में भी, जिस किसी भी प्रकार से होते हैं, वे सुख बढ़ाने के बजाय, दुःख ही बढ़ाते हैं। आत्मा के अतिरिक्त जितने भी सांसारिक पदार्थ हैं, वे पर हैं। उनके साथ आसक्ति युक्त आत्मीयता या मोहजन्य तादात्म्य सम्बन्ध जोड़ना ही संयोग है और ऐसे संयोग सम्बन्ध जोड़ने से दुःख और अशान्ति का अनुभव होता है । ऐसा पर-पदार्थ-सम्बन्ध दुःख का कारण होने से अनन्त-आत्मिकसुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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