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________________ आत्मा और परमात्मा के बीच की दूरी कैसे मिटे ? | २३५ अन्यतीर्थिक लोगों से भी सम्पर्क होता है। जब वे प्रवचन देते हैं, या शिष्यों तथा साधु-साध्वियों का प्रबोध देते हैं, तब उनसे सम्पर्क -संयोग होता है । जब वे उठते-बैठते, चलते-फिरते हैं, या अन्य शारीरिक क्रियाएँ करते हैं, तब उनकी पाँचों इन्द्रियों से उनके विषयों का सन्निकर्ष भी होता है, तथा सर्दी, गर्मी, वर्षा, मकान एवं शरीर के अवयवों आदि का स्पर्श भी होता है । मिट्टी, पानी, हवा, धूप आदि का भी स्पर्श होता है । ये और ऐसे अनेक आत्मा से भिन्न बाह्य पदार्थ हैं । यदि इन सबको आत्मा से भिन्न बाह्य पदार्थों का संयोग कहा जाये, तब तो वीतराग जीवन्मुक्त सदेह परमात्मा (तीर्थंकर एवं केवलज्ञानी जैसे ) महापुरुषों को भी संयोग से अनेकविध दुःख प्राप्त होने चाहिए; और तीर्थंकरों के अनुगामी साधुसाध्वियों को तो इन और ऐसे ( उपर्युक्त ) आत्मबाह्य पदार्थों के संयोग से अनेक जन्मों तक अनेक प्रकार के दुःख प्राप्त होने चाहिए । परन्तु ऐसा नहीं दिखाई देता, न ही ऐसा अनुभव है । वल्कि तीर्थंकर आदि महान् आत्माओं को इन तथाकथित संयोगों के होते हुए भी सातावेदनीय पुण्यकर्मोदयवश सुख ही प्राप्त होता है । अन्य आत्मार्थी मुमुक्षुओं को भो इन तथाकथित संयोगों से दुःख की प्राप्ति नहीं होती । संयोग का गलत और सही अर्थ ऐसी स्थिति में संयोग से अनेकविध दुःख होते हैं अथवा 'जीव की दुःखों की परम्परा प्राप्त होने का मूल कारण संयोग है' इन: सिद्धान्त वाक्यों के साथ संगति नहीं बैठती । इसलिए संयोग का अर्थ - किसी भी आत्म- बाह्य पदार्थ के साथ मात्र स्पर्श करना, सिर्फ सम्पर्क: करना, अड़ना, जुड़ना, अथवा किसी भी द्रन्द्रियविषय से केवल सन्निकर्ष, सम्पर्क या स्पर्श हो जाना नहीं है । अगर संयोग का यही अर्थ होता, तब तो केवलज्ञानी, वीतराग तीर्थंकर या निर्ग्रन्थ साधु-साध्वी भी संयोग से बच नहीं सकते । फिर तो कई जन्मों तक ऐसे संयोग से छुटकारा नहीं हो सकता, न ही रत्नत्रय साधना से उन्हें कभी मुक्ति या परमात्मपदप्राप्ति हो सकती है, क्योंकि प्रत्येक साधक को, यहाँ तक कि केवली के भी आहार का ग्रहण होता है, तब मुख, जीभ, दाँत, उदर, नेत्र आदि से संयोग होता है । विहार करते समय भी पैर, आँख आदि से संयोग होता है । वस्त्र, पात्र, रजोहरणादि धर्मोपकरणों से हाथ और शरीर का संयोग होता है । कोई भी चर्या करते समय प्रायः पाँचों इन्द्रियों के विषयों का संयोग होता रहता है । अतः यहाँ जैनागमामान्य संयोग का अर्थ या तात्पर्यं कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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