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२४४ | अप्पा सो परमप्पा
संयोग से मुक्ति के लिए अनुभूत उपाय
____ संयोग और दुःख, अथवा परपदार्थों का संयोग और आत्मगुणों से वियोग दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। फिर चाहे वह संयोग प्रिय वस्तु के साथ हआ हो, चाहे अप्रिय वस्तु के साथ, दोनों ही स्थिति में प्रायः रागद्वष पैदा होता है और वह कर्मबन्ध या कर्माधव का कारण है। अतः प्रश्न यह है कि संयोग अथवा युजनकरण से मुक्त होने के लिए आत्मार्थी या परमात्मपदार्थी साधक को क्या करना चाहिए ?
इसका समाधान आचार्य श्री अमित गति ने स्पष्टतः किया है"ततस्त्रिधाऽसौ परिर्जनीयो, रियासुना निवृतिमात्मनीनाम् ।"1.
"अतः अपनी मुक्ति =परमात्मप्राप्ति या आत्मशान्ति चाहने वाले साधक को संयोग का मन, वचन और काया तीनों से त्याग कर देना चाहिए।
संयोग का वीतराग सदेह केवली परमात्मा तो सर्वथा त्याग कर सकते हैं, परन्तु छद्मस्थ साधक द्वारा संयोग का पूर्णतया त्याग कर पाना कठिन है। उसके लिए सर्वोत्तम उपाय यह है कि इन्द्रियों से विषयों या पदार्थों अथवा व्यक्तियों का संयोग तो होगा ही, उसे तेरहवें गुणस्थान तक सर्वथा छोड़ा जाना असम्भव है, किन्तु जिस वस्तु या व्यक्ति को देखो, सुनो, सूघो, चखो या स्पर्श करो उससे मन को अलग रखो। मन से उस पर रागद्वेष, मोह, ममत्व-अहंत्व, आसक्ति या घृणा, ईर्ष्या या मात्सर्य का रंग मत चढ़ाओ। किसी भी इन्द्रिय या मन के विषय पर जब रागद्वेष आदि विभावों-विकारों का रंग चढ़ता है, तभी वह संयोग कहलाता है और वही संयोग कर्मों और अन्त में दुःखों को निमन्त्रित करता है। अतः इन्द्रियविषयों के साथ मन को न जोड़ो, उन पर राग व द्वष का रंग न लगाओ, उनके वश में न आओ। यही संयोग से मुक्त होने का सर्वसुलभ उपाय है। किसी भी षियव या सजीव-निर्जीव पदार्थ को देख-सुनकर शुद्ध आत्मा की दृष्टि से ही उनसे होने वाली उपलब्धि या वस्तु तत्त्व का निर्णय करो।
___ संयोग से छूटकारा पाने का दूसरा उपाय यह है कि जब भी बाह्य पदार्थों (पंचेन्द्रिय विषयों, सुखसाधनों, शरीरादि या परिजनों-स्वजनों) के
१ सामायिकपाठ श्लोक २८
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