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१० | अप्पा सो परमप्पा
आत्मा, जहाँ अभी है, वहाँ से सात रज्जूप्रमाण लोकभूमि पार करने के बाद सिद्धशिला (परमात्मधाम) आती है, जहाँ परमात्मा का निवास है। इसलिए क्षेत्रकृत अन्तर भी सामान्य मानवात्मा और परमात्मा के बीच में बहत ही अधिक है। सामान्य मानवात्मा और परमात्मा के बीच में कालकृत दूरी भी कम नहीं है। इस कालचक्र में अधिकांश तीर्थंकर अवसर्पिणी काल के तीसरे, चौथे आरक में हए हैं। भगवान् नेमिनाथ से लेकर भ० महावीर तक जितने भी तीर्थंकर या अन्य सामान्य केवली हुए हैं, वे भी कम से कम करीब २५०० वर्ष पूर्व सिद्ध-युक्त हए हैं। अतः कालकत दूरी भी पंचम आरक के वर्तमानकालीन सामान्य मानवात्मा से परमात्मा तक की काफी है। और भावकृत अन्तर भी परमात्मा के और वर्तमान कालिक सामान्य मानवात्मा के बीच में बहुत ही अधिक है। परमात्मा रागद्वेषरहित, सहजानन्दी, शुद्ध स्वरूपी, अविनाशी, एवं निखालिस आत्मभावों से परिपूर्ण हैं; जबकि सामान्य मानवात्मा राग-द्वेष, काम, क्रोध, अहंकार, माया, लोभ, मोह आदि कषायभावों से युक्त है। आत्मभावों में स्थिर होना शुद्ध-निर्विकार बनना तो दूर रहा, अभी वह थोड़ी-सी देर भी शुद्ध आत्मस्वरूप के ध्यान (चिन्तन) में टिक नहीं सकता।
निष्कर्ष यह है कि जो-जो व्यक्ति परमात्मा बने हैं वे समस्त कर्मों से सर्वथा रहित होने से क्षेत्र से भी वर्तमान सामान्य मानवात्मा से काफी दूर चले गए, काल से भी कर्म नष्ट होते ही काफी पहले वे सिद्ध-बुद्ध मुक्त हो गए, द्रव्य और भाव से भी कर्मों के सर्वथा क्षय होने पर उनके और सामान्य मानवात्मा के बीच में काफी अन्तर हो गया। वे सिद्ध-बुद्ध मुक्त, वोत राग, एवं अनन्तज्ञानी, अनन्तदर्शी, अनन्त आनन्द और शक्ति के धनी हुए और सामान्य मानवात्मा इस समय कर्मों से घिरे होने के कारण बन्धन में जकड़ा हुआ है, संसार के जन्म-मरण के चक्र में फंसा हआ है, रागद्वेषादि से लिप्त है, अभी उसमें परोक्ष और वह भी अल्पज्ञान है । ऐसी दशा में आत्मा और परमात्मा में साम्य, तादात्म्य या मिलन कैसे सम्भव हो सकता है ? और 'अप्पा सो परमप्पा' का सिद्धान्त भी कैसे घटित हो सकता है ? छोटे मुंह बड़ी बात : पूर्णता के लक्ष्य से सिद्ध होती है।
कोई कह सकता है कि जो मानवात्मा अभी पर्वतराज की तलहटी में खड़ा है, वह पर्वत के अन्तिम शिखर पर आरूढ़ व्यक्ति की बराबरी करे, उसके समान अपने को बताए, यह तो 'छोटे मुँह बड़ी बात' वाली
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