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________________ अप्पा सो परमप्पा यही कारण है कि जैनदर्शन के प्रखर पुरस्कर्ता साम्ययोगी आचार्य हरिभद्रसूरि ने परमात्मतत्व के विषय में दोनों धर्मधाराओं का समन्वयात्मक श्लोक दिया है पारमैश्वर्ययुक्तत्वात् आत्मैव मतईश्वरः । स च कर्तेति निर्दोष, कर्तृवादो व्यवस्थितः ।। '(शुद्ध) आत्मा ही परम ऐश्वर्ययुक्त है अतः वही परमात्मा (ईश्वर) माना गया है। वही (शुभ-अशुभ कर्मों का अथवा निश्चयदृष्टि से अपने ज्ञान-दर्शन-सुख-शक्ति का) कर्ता = अपनी सृष्टि का कर्ता है । इस प्रकार जैनदर्शन में (आत्मारूप परमात्मा का) निर्दोष (सृष्टि) कर्त त्ववाद व्यवस्थित है।' सामान्य आत्मा और परमात्मा में बहत अन्तर उपर्युक्त विवेचन से तथा निश्चय नय को दृष्टि से यह तो स्पष्ट है कि 'अप्पा सो परमप्पा' जो आत्मा है, वही परमात्मा है। निश्चयदृष्टि से आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर न होते हुए भी व्यवहारदृष्टि से वर्तमान में सामान्य आत्मा और परमात्मा के बीच में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से बहत ही अन्तर है। द्रव्यकत अन्तर तो स्पष्ट है। परमात्मा वर्तमान में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त और परम विशुद्ध हैं, वे गति-जातिशरीर, जन्म, मरा, मृत्यु, व्याधि, आधि, उपाधि आदि से तथा कषाय, राग-द्वोष, मोह एवं शुभाशुभकर्म से सर्वथा रहित हैं, अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य (शक्ति) आदि आत्मिक गुणों से सम्पन्न, निरंजन, निराकार हैं, किन्तु सामान्य आत्माएं वर्तमान में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं हैं, न ही पूर्ण विशुद्ध हैं। वे गति, जाति, शरीर, जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, आधि, उपाधि से संयुक्त हैं। वे अभी तो सिद्धत्व से बहुत दूर हैं, पर्याय रूप से अशुद्ध हैं। कहाँ अनन्तज्ञानादि चतुष्टय से युक्त परमात्मा और कहाँ सामान्य आत्मा, जो अल्पज्ञ, अल्पदर्शी, सांसारिक सुख-दुःखों से ग्रस्त तथा अल्पशक्तिमान है। राग-द्वेष, मोह, कषाय, विषय एवं कर्मों से घिरा हुआ छद्मस्थ मानव कैसे परमात्मा की बराबरी कर सकता है ? क्षेत्र से भी परमात्मा और सामान्य आत्मा में काफी दूरी है; करोड़ों कोसों का फासला (Distance) है। परमात्मा लोक के अग्र भाग पर हैं। जबकि सामान्य मानवात्मा अभी मध्यलोक में है। अर्थातु-सामान्य १ शास्त्रवार्ता-समुच्चय स्तवक ३, श्लो० १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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