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आत्मा और परमात्मा के बीच की दूरी कैसे मिटे ?
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व्यवहारदृष्टि से आत्मा और परमात्मा के बीच अन्तर है
निश्चयनय की दृष्टि से 'अप्पा सो परमप्पा'--'(शुद्ध) आत्मा ही परमात्मा है', यह बात स्पष्ट है। और यह बात भी यथार्थ है कि जिस जीवात्मा के परिणाम बहिरात्मभाव से हटकर अन्तरात्मारूप बन जाते हैं, जिसकी परिणति और स्थिरता अन्तरात्मा में हो जाती है, वह अन्तरात्मभावरत आत्मा ही परमात्मा बन सकता है। परमात्मा और उस अन्तरात्मा में विशेष दूरी नहीं रहती । परन्तु निश्चयदृष्टि से आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर न होते हुए भी वर्तमान में व्यवहारदृष्टि से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा के बहुत ही दूरी है । इस तथ्य को हम पहले भलीभाँति स्पष्ट कर चुके हैं।
दोनों के बीच अन्तर किस कारण से ? आत्मा और परमात्मा की जाति, स्वभाव और गुण में एकत्व होते हुए भी व्यवहारदृष्टि से आत्मा और परमात्मा के बीच में जो अन्तर दिखाई देता है, वह किस कारण से है ? वह कारण स्वाभाविक है या वैभाविक ? अर्थात्-वह कारण वास्तविक है या औपाधिक या औपचारिक ? वह अन्तर मिट सकता है या नहीं ?
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