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________________ २३२ ! अप्पा सो परमप्पा इसका समाधान करते हुए योगीश्वर आनन्दघनजी ने पद्मप्रभु भगवान् की स्तुति करते हुए कहा "यंजनकरणे हो अन्तर तुझ पड्यो रे, गुणकरणे करी भंग। ग्रन्थ-उक्तेकरी पण्डितजन कह्यो रे, अन्तर-भंग सुअंग ॥५॥1 अर्थात्-युंजनकरण (आत्मबाह्य पदार्थों या कर्मों के साथ रागद्वेष-युक्त संयोग) के कारण तेरा परमात्मा से अन्तर (फासला) पड़ा है, जो गूणकरण (स्व में या आत्मगुण में रमण करने की क्रिया) के द्वारा भंग हो (मिट) सकता है। आगमादि धर्मग्रन्थों के कथन से शास्त्रज्ञ एवं सिद्धान्त विद् पण्डितां ने परमात्मा से आत्मा की दूरी (अन्तर) मिटाने का यही सर्वश्रेष्ठ उपाय बताया है । संयोग ही आत्मा को परमात्मा से दूर रखता है . इससे यह स्पष्ट हो गया कि आत्म-बाह्य पदार्थों के साथ संयोग आत्मा को परमात्मा से दूर ठेल देता है। किन्तु जब तक आत्मा संसारी या उद्मस्थ रहता है, तब वह एक या दूसरे प्रकार से बाह्य पदार्थों से उसका संयोग होता ही रहता हैं। अपने शरीर से. मन से, इन्द्रियों से, इन्द्रियों के विषयों से, काम, क्रोध, मद, लोभ, मत्सर, राग, द्वेष, अहंकार छल-छम, प्रभति मन के विषयों से संयोग होता ही रहता है। इसी प्रकार गृहस्थ को अपने माता-पिता, भाई-बहन, जाति, कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र, संघ आदि से भी सम्पर्क रहता है। साधु-साध्वियों को अपने गुरु, शिष्य, संघ, पंथ, सम्प्रदाय, गण, गच्छ, आदि से अथवा विचरण क्षेत्र आदि से भी लगाव रहता है, अथवा अपने वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि धर्मोपकरणों से भी उसका संयोग-सम्बन्ध होता रहता है। इस प्रकार संसार की नाना घटनाओं, पदार्थों, भोज्य वस्तुओं, आहार, विहार आदि से भी तथा देखने, जानने, सुनने, चखने, सूंघने, स्पर्श करने आदि से भी उसका एक या दूसरे प्रकार से वास्ता पड़ता है । ऐसी स्थिति में कोई भी आत्मार्थी गृहस्थ या साधु-साध्वीगण, इन संयोगों से कैसे छूट सकते हैं ? इन संयोगों को शरीरधारी मानव कैसे १ आनन्दघन चौबीसी, पद्मप्रभु परमात्मा का स्तवन ५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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