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________________ परमात्मा को कहाँ और कैसे देखें ? | २२६ है। उन्हें वीतराग परमात्मा का यथार्थ मार्ग सूझता ही नहीं, प्रभु के उस सत्यपथ पर चलना तो और भी दुर्गम है। साथ ही जब ज्ञानादिचतुष्टय रूप परमात्मपथ का आचरण व्यवहारदष्टि से केवल शास्त्रों को पढ़ने व कण्ठस्थ करने से, स्थूल क्रियाकाण्डों के अविवेक पूर्वक आचरण करने, तथा स्थूलदृष्टि से व्यवहारसम्यक्त्व को ग्रहण करने एवं अज्ञानपूर्वक कष्ट सहनरूप बाह्य तप करने तक हा सानित रहता है; निश्चयदृष्टि से आत्मभावों में रमणरूप या आत्मगुगों में स्थिरतारूप ज्ञान-दर्शन-चारित्र तप के आचरण को ओझल कर दिया जाता है, तब वीतराग परमात्मा के यथार्थ पथ के दर्शन और उस पर गमन साधक के लिए दुर्लभ हो जाता है। इसीलिए व्यासजी को कहना पड़ा तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतमो विभिनाः, नैका मुतिर्यस्य बत्रः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां, महाजनो येन गतः स पन्था ॥ तर्क बिना पेंदे का लाटा है, श्रुतियाँ (शास्त्र) भिन्न-भिन्न हैं, कोई मुनि ऐसा सर्वज्ञ वीतराग नहीं, जिसका वचन प्रमाणभूत माना जा सके। अतः आत्म धर्म (परमात्म स्वभाव) का तत्व बुद्धि की गुफा में निहित है क्योंकि स्वयं वीतराग महापुरुष जिस मार्ग से गये हैं, वही परमात्मपय है । __परमात्म-पथ को प्राप्ति का सुगम और अनुभूत मार्ग निष्कर्ष यह है कि कोरे तर्को, शास्त्रों, वाद-विवादों एकान्त व्यवहार एवं एकान्त निश्चयदृष्टि से परमात्मय का निर्णय करना एवं उस पर चलकर अनुभव करना कठिन है। ऐसा कोई प्रत्यक्षज्ञानी भी इस समय भरतक्षेत्र में नहीं है, जो प्रभु के ययार्थ मार्ग (मोक्षमार्ग) को सम्यकरूप से दिखा सके या मार्गदर्शन कर सके । अतः व्यवहार और निश्चय दोनों दृष्टियों से आत्मभावों में स्थिर रहकर सम्यक्ज्ञानपूर्वक ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप का आचरण करने का स्वयं पुरुषार्थ किया जाये, जिससे परमात्मा के शुद्ध मार्ग का दर्शन और अनुभव हो । जैनागमों में ऐसे श्रुतज्ञानियों का उल्लेख है कि वे स्थितात्म (स्थितप्रज्ञ) होकर अपने मति-श्रुतज्ञानियों से किसी वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानने के लिए उप م १ दृष्टिरागो हि पापीयान्, दुरुच्छेद्यः सतामपि ॥ - आचार्य हेमचंद्र २ क्षुरस्यधारा निशिता दुरत्यया, दुर्ग पयस्तत् कवयो वदन्ति ।' -उपनिषद् ३ महाभारत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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