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२२८ | अप्पा सो परमप्पा अनुभव नहीं होगा, वह मंजिल के निकट नहीं पहुँच सकेगा। वीतराग परमात्मा ने परमात्म-प्राप्ति का मार्ग शास्त्र (उत्तराध्ययन सूत्र) में इस प्रकार बताया है
"नाणं च सणं चेव चरितं च तवो तहा।
एस मरगुत्ति पप्णत्तो, जिणेहि वरदंसिहि ॥1 श्रेष्ठ सर्वज्ञ सर्वदर्शी जिनेश्वरों ने सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यक्तप इन चारों को संयुक्त रूप से (मोक्ष का या पर. मात्म-प्राप्ति का) मार्ग बताया है।
कोई भी अध्यात्म-साधक जब तक इस परमात्म मार्ग (मोक्षमार्ग) पर चलेगा नहीं, केवल तर्को, वाद-विवादों, शास्त्रों की व्याख्याओं, दर्शनशास्त्रों की अटपटी बातों में ही उलझा रहेगा, तब तक उसे परमात्म-मार्ग का यथार्थ दर्शन नहीं हो सकेगा। परन्तु परमात्ममार्ग के इन (पूर्वोक्त) चारों चरणों पर व्यवहार और निश्चय दोनों दृष्टियों से चलना-प्रभुपथ पर कदम रखना टेढी खीर है, असिधारा व्रत है। बड़े-बड़े साधकों के कदम इस मार्ग पर चलने में लड़खड़ाने लगते हैं।
व्यवहार दृष्टि से साधक जब ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के आचरण (पालन) के लिए चरण रखने लगता है, तब उसके जीवन में आचरण के साथ कांक्षामोहनीयवश वर्जनीय बातें भी सहसा आ जाती हैं। वह या तो इहलौकिक या पारलौकिक किसी भौतिक पदार्थ की, सख की या सुख-साधनों की कामना, लोभ, स्वार्थ या प्रलोभन से प्रेरित होकर आचरण करने लगता है, या फिर कीर्ति, प्रशंसा, प्रसिद्धि, वाहवाही तथा पद या प्रतिष्ठा की कामना से प्रेरित होकर उक्त चारों का आचरण करने लगता है, एकमात्र वीतराग आर्हत् परमात्मपद-प्राप्ति के हेतु से परमात्ममार्गचतुष्टय पर चलना, उसके लिए अत्यन्त कठिन हो जाता है । फिर कांक्षामोहनीय इतना प्रबल होता है, कि बड़े-बड़ें साधकों की दृष्टि पर राग, मोह, (स्वत्वमोह-कालमोह) अज्ञान एवं पूर्वाग्रह का पर्दा पड़ जाता १ उत्तराध्ययन सूत्र, अ. २८, गा. २ २ चउकारणसजुत""मोक्खमग्गग इं तच्च ।-उत्तराध्ययन सूत्र अ. २८ गा. १ ३ न इहलोगट्टयाए आयारम हिट्टि ज्जा, न परलोगट्ठाए आयारमहिट्ठिज्जा,
न कित्ति-वन्न-सिलोगट्टयाए आयारमहिटिज्जा, नन्नत्थ आरहतेहिं हेउहिं आयारमहिदिठज्जा।
- दशवकालिक अ. ६, उ. ४
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