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परमात्मा कैसा है, कैसा नहीं | २०५
अर्थात् हीनता की भावना से मनुष्य की आत्मा परमात्मा नहीं बन सकती, वह तथाकथित ईश्वर की जी हजुरी, प्रशंसा, चापलूसी, गुलामी और याचना करने के सिवाय आत्मिक विकास की उत्कृष्ट साधना करने का साहस, उत्साह और संवेग नहीं कर सकता । फलतः आत्मा की शक्तियों को भुलाकर या छिपाकर मनुष्य अपनी आत्मरक्षा एवं उद्धार स्वयं करने के बदले अवतारवाद के चक्कर में पड़कर भगवान् से या ईश्वर से रक्षा करने, उद्धार करने, संकट से उबारने, कष्टों और परीषहों से दूर रखने, रोग, शोक एवं दुःख मिटाने की प्रार्थना यहाँ तक कि रोटी, कपड़ा, मकान, गाय आदि पशु एवं भौतिक सुख-साधनों की प्रार्थना याचना करता है । इस प्रकार की हीनता की भावना से ग्रस्त मानवात्मा मानव से परमात्मा बनने को उत्साहित नहीं होता, वह एक दीन-हीन, शक्ति से क्षीण, मानव पशुसम बनकर रह जाता है। अधिक से अधिक वह नैतिक धर्मात्मा, योगी, या महात्मा ( साधु-संन्यासी) बन सकता है, परमात्मा का ज्ञानवान्, भक्त विद्वान् ज्योतिर्विद् एवं कुछ अतीन्द्रिय ज्ञान की शक्ति वाला बन सकता है; वह भी ईश्वर की कृपा से ही, ईश्वर की शरण में जाने से ही, उसके समक्ष दीन-हीन बनकर पुकार करने से ही । वह ईश्वर के जितना सर्वज्ञानी, सर्वदर्शी, परमपवित्र, पूर्ण निर्विकार, पूर्ण आनन्दमय, पूर्ण शक्तिमान् नहीं बन सकता ।
मनुष्य के विकास की कुछ सीमा है, और वह सीमा भी ईश्वर - इच्छा के अधीन है । मनुष्य ईश्वर की कृपा एवं दया का भिखारी बनकर रहे, अपनी शक्तियों, क्षमताओं एवं योग्यताओं का सदुपयोग भी न करे, तभी उसकी कृपा, दया एवं प्रसन्नता प्राप्त होती है । यही अवतारवाद की दासत्व भावना एवं गुलामी वृत्ति है, जो मानव के नैतिक बल, साहस एवं सामर्थ्य को घटाती है । जब ईश्वर या भगवान् ही सब कुछ कर या बना सकता है, तब मनुष्य भला क्यों अहिंसादि की साधना करेगा, क्यों त्याग, तप, कष्ट सहन, नियम, संयम, व्रत आदि का आचरण करेगा ? भगवान् या ईश्वर के पास ही उसकी शक्ति, बुद्धि, भाग्य, भविष्य, क्षमता आदि सब रिजर्व या गिरवी रखी हुई जो है ! वह जब चाहेगा, तब भगवान् या ईश्वर की मिन्नत, प्रशंसा, प्रार्थना और दीनतापूर्वक याचना करने से वह खुश होकर दे ही देगा न !
अवतारवाद में पाप - माफी तथा कटु-फल-मुक्ति का दौर ब्राह्मण संस्कृति के समर्थक धर्मग्रन्थों में पापी, अनैतिक अथवा
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