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२०४ | अप्पा सो परमप्पा
से ईश्वर नहीं बने अर्थात परमात्मभाव की साधना करके मानवात्मा से परमात्मा नहीं बने, अपितु वे मुल में ही ईश्वर के प्रतिनिधि थे, भगवान् थे, अवतार थे, मनुष्य नहीं। ईश्वर ही अवतार लेकर धरती पर आए थे। मनुष्य में इतना सामर्थ्य कहाँ कि वह भगवान् बन सके । मनुष्य ईश्वर नहीं बन सकता
अवतारवाद मनुष्य की उच्चता एवं पवित्रता से ईश्वर को प्राप्त करने की शक्ति में विश्वास नहीं रखता। मनुष्य चाहे जितनी उच्च साधना कर ले, चाहे वह सत्य, अहिसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाए, वह ईश्वर तो कदापि नहीं बन सकता । अवतारवाद की दृष्टि में ईश्वर एक ही है, वही सृष्टि का सर्जेनहार, तारणहार एवं विनाश करने वाला है । ईश्वर सर्वतन्त्र, स्वतन्त्र और विश्व का सर्वाधिकारी सम्राट है। मनुष्य तो उसके हाथ की कठपुतली है। ईश्वर या ईश्वर का प्रतिनिधि अवतार (भगवान्) ही सारे जगत् को अपनी माया से इस प्रकार घुमा रहा है, जिस प्रकार कुम्हार चाक पर रखे मिट्टी के पिण्ड को घुमाता है।
अवतारवाद में 'सोऽहं' के बदले 'दासोऽह' की भावना
__ अवतारवाद मनुष्य में दास-भावना भरता है । वह कहता है-"तुम मनुष्य हो । ईश्वर की बराबरी करने की धृष्टता मत करना । तुम पामर हो, अल्पज्ञ हो, अल्पशक्तिमान हो। भला ईश्वर का कार्य तुम दो हाथ वाले, हाड़-मांस के पुतले मानव कैसे कर सकते हो ? ईश्वर की समानता करना नास्तिकता है। तुम नीचे बनकर रहो, अपने आपको दीन-हीन और भगवान् के दास मानकर रहो । 'सोऽहं' के बदले 'दासोऽहं' भावना रखो। तभी तुम पर ईश्वर की कृपा बरसेगी। अपने को पंग, लाचार और बेबस समझोगे, और संकट, आफत, अत्याचार, प्राकृतिक प्रकोप आदि के अवसर पर दोन-हीन मनोवृत्ति से ईश्वर से प्रार्थना करोगे, तभी वह संकटमोचन करेगा । तुम अपने आप में कुछ महान कार्य करते जाओगे तो तुम पर ईश्वर का प्रकोप होगा । मनुष्य का अपना भविष्य उसके अपने हाथ में नहीं है, वह एकमात्र जगन्नियन्ता ईश्वर से हाथ में है। इस प्रकार की दास-भावना
१ भ्रामयन् सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया ।
-भगवद्गीता १८/६१
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