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२०६ | अप्पा सो परमप्पा
अनाचारी मनुष्य को शरण में आने और भयमुक्त हो जाने की प्रेरणा मिलती है। भगवद्गीता में सस्ती भक्ति के प्रवाह में ईश्वर या भगवान् के मुख से कहलाया गया है-हे मानव ! तू मेरी शरण में आ जा, मुझे स्मरण करके डटकर युद्ध कर, तू डरता क्यों है ? मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा, तू शोक मत कर !2
बस, तुझे इतनी-सी बात करनी होगी कि तू मुझे अपना स्वामी और स्वयं को दास, अथवा मुझे गुरु और स्वयं को शिष्य या मुझे शरण्य (शरणागत रक्षक) और स्वयं को शरणागत मान । तुझे और कुछ त्याग, तप, कष्ट सहन या व्रताचरण नहीं करना है ।
इस पाप-माफी या सस्ती भक्ति का परिणाम यह आया कि संसार के सभी देशों में जनता का नैतिक स्तर गिरता जा रहा है, धर्माचरण एवं सत्कार्यों के करने की भावना घटती जा रही है, पापाचरण, भ्रष्टाचार एवं अनाचार की मात्रा अहर्निश बढ़ती जा रही है। और भगवान् या तथाकथित ईश्वर आँख मूंदे, सोया पड़ा है, चुपचाप यह सब देख रहा है । जब इतने भयंकर पाप हो रहे हैं, सद्धर्माचरण का ह्रास हो रहा है, तब वह ईश्वर या भगवान् क्यों नहीं आता ?
शरणागति और सस्तीभक्ति के कारण लोग पापकार्यों में बेखटके प्रवृत्त हो रहे हैं । फलतः वे पाप से नहीं बचकर पाप के फल से बचना चाहते हैं । वे त्याग, व्रत, नियम, तप, संयम आदि किसी भी कठोर साधना की आवश्यकता महसूस नहीं करते। ईश्वर या ईश्वर के किसी अवतार की शरण में जाने मात्र से ही जब बेड़ा पार हो जाता है, पापों के फल भोगने से छुट्टी हो जाती है. तब क्यों कोई कठोर साधना करेगा? भगवान् या ईश्वर जब चाहेगा, तब स्वर्ग या मोक्ष में भेज देगा, फिर क्या जरूरत है, मोक्ष या परमात्मपद की प्राप्ति करने की साधना करने की ? अवतारवाद की दृष्टि में ईश्वर या ईश्वर के किसी अवतार की शरण में चले जाना और उन्हें नाच-गा-बजाकर रिझा लेना-खुश कर देना ही सबसे बड़ी साधना है।
१ मामनुस्मर युद्धय । २ अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः । -भगवद्गीता १८/६६
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