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________________ अप्पा सो परमप्पा | ७ त्तियों में पड़ना चाहिये या नहीं ? इस प्रकार उस पुत्र में स्वयं अनुशासन पैदा होगा। दूसरा रास्ता यह है कि पिता जब जिंदा था, तब मदिरालय, वेश्यालय, जूआघर आदि में जाने तथा मांस खाने आदि से रोकता था, लेकिन अब कोई रोकने वाला नहीं रहा । अब कर लें अपना मनचाहा । स्वच्छन्द होकर जिन विषय-भोगों को भोगना है, उन्हें इच्छानुसार भोग लें। अब 'Eat, drink and be merry' खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ। नीत्शे ने परमात्मा का सर्वथा अस्तित्व न मानकर यह दूसरा स्वच्छन्दता का मार्ग अपनाया। परन्तु भगवान महावीर ने पहला मार्ग अपनाकर परमात्मा बनने का दायित्व मानव पर डाल दिया। उन्होंने कहा-"तुम्हारा मित्र, आश्रयदाता या तुम्हें सुखी-दुःखी बनाने वाला दूसरा कोई नहीं है । तुम स्वयं ही अपने मित्र हो, बाहर के मित्रों की अपेक्षा क्यों करते हो ?" तुम स्वयं अपने निर्माता हो। शैतान बनना या भगवान बनना तुम्हारे ही हाथ में है। कोई भी शक्ति या परमात्मा तुम्हें सुख या दुःख नहीं दे सकता। तुम्हारी अपनी आत्मा सुख-दुःख की उत्पादिका है। किसी शक्ति के पास परमात्मपद या मोक्ष प्राप्त करा देने की शक्ति नहीं है। आत्म। उस योग्य बनकर स्वयमेव ही अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकता है, या मोक्ष प्राप्त कर सकता है । अपने ही हाथ में आत्मा से परमात्मा बनने की जिम्मेवारी लो । नीत्शे परमात्मा के अस्तित्व को ही न मानकर विषय-वासनाओं की गुलामी में स्वयं फँसा और दूसरों को फंसाया, जबकि भ० महावीर ने परमात्मा का वास्तविक स्वरूप मानकर आत्मा को परमात्मा बनने का सन्देश दिया, दायित्व सौंपा। उन्होंने कहा कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मज्योति छिपी हुई-सोई हुई है, उसे रत्नत्रय एवं तप-संयम के पथ पर चलने का पुरुषार्थ करके प्रकट करने, जगाने एवं शुद्ध, निर्मल एवं विकसित करने की उन्होंने प्रेरणा दी । भ० महावीर ने आत्मा के लिये परमात्मा बनने का द्वार खोल दिया, जबकि नीत्शे ने परमात्मा का निषेध करके आत्मा के लिये स्वतंत्रता का द्वार तो खोला, परन्तु वह स्वयं स्वच्छन्दता में उलझ गया। वह स्वच्छन्दता का द्वार हो गया मनुष्यों के लिये। १ 'पुरिसा तुममेव तुमं मित्त कि बहिया मित्तमिच्छसि ?' २ अप्पा मित्तम मित्तं च दुप्पट्ठिओ सुपट्ठिओ। ३ अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य । -आचारांग सूत्र --उत्तराध्ययन - उत्तराध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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