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६ / अप्पा सो परमप्पा
इन्कार करने में और नीत्शे के द्वारा परमात्मा का इन्कार करने में अन्तर ही क्या रहा?
गहराई से सोचें तो भगवान महावीर ने पूर्वोक्त प्रकार का तथाकथित परमात्मा मानने से इन्कार किया, किन्तु उन्होंने परमात्मतत्त्व को मानने से इन्कार नहीं किया। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की कि आत्मा स्वयं परमात्मा बन सकता है। अर्थात्-आत्मा पर परमात्मा बनने का दायित्व डाला। आत्मा पर संयम, तप, त्याग, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की साधना के क्षेत्र में स्वतन्त्र रूप से पुरुषार्थ करके परमात्मा बनने की जिम्मेवारी डाली। तात्पर्य यह है कि उन्होंने साधना के क्षेत्र में सभी मनुष्यों को परमात्मपदप्राप्ति की स्वतन्त्रता प्रदान की। इस दष्टि से भ० महावीर स्वयं भी परमात्म पद के अधिकारी बने, और अनेकों साधव -साधिकाओं को परमात्म पद के अधिकारी बनाये । अर्थात्-भ० महावीर ने मनुष्य को परमात्मा बनने के लिए प्रेरित किया, स्वयं भी उसी उपाय से परमात्मा बने । यह स्वतन्त्रता कोई स्वछन्दता का रूप नहीं है, बल्कि जिम्मेवारी है; जबकि नीत्शे ने परमात्मा का सर्वथा निषेध करके स्वतन्त्रता क्या ली स्वच्छन्दता अपना ली। नीत्शे की परमात्मा के विषय में सर्वथा निषेधात्मक मान्यता मनुष्यों के लिए स्वच्छन्दता बनी। मनष्य निरंकुश होकर अपनी मनमानी करने का रास्ता अपनाने लगा। नीत्शे का परमात्मा तो मर गया, परन्तु वैसी आत्मा का पुनर्जागरण न हुआ, बल्कि आत्मा ने स्वच्छन्दता और निरंकुशता का मार्ग अपना लिया। नीत्शे के मतानुसार परमात्मा के जो बन्धन थे, अंकुश थे, नियमन थे, अथवा प्रतिबन्ध थे, वे नहीं रहे, आत्मा स्वच्छन्द होकर उन्हें उखाड़ने के मार्ग पर चल पड़ा। जो मर्जी में आये करो-धरो, कोई कुछ भी कहने वाला नहीं है । अब तक जिन अकरणीय कार्यों को करने से आत्मा को रोका गया था, अब वह उन्हें कर ले।
जैसे-किसी लड़के का पिता मर जाए तो पुत्र के समक्ष दो रास्ते हो सकते हैं। एक तो यह कि वह बाप के बताये हुए रास्ते पर जागरूक होकर चले । जो कार्य उसका पिता करता था, अब उस पुत्र को करना पड़ेगा । वह यह भी सोचता है कि पिता का अनुशासन तो अब नहीं रहा अब तो मुझे अपने आपके अनुशासन में चलना है। अब वेश्यालय, मदिरालय, जुआघर, मांसाहार आदि प्रवृत्तियों में जाने से रोकने वाला पिता नहीं रहा । अतः मुझे स्वयं ही निर्णय करना पड़ेगा कि मुझे ऐसी दुष्प्रवृ.
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