SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ | अप्पा सो परमप्पा को माफ करना अथवा किसी के पुण्य प्रबल न होते हुए भी पुण्यफल दे देना भो ईश्वर के बस की बात नहीं है। वह अपने आत्मिक ज्ञानादि चतुष्टय सम्पन्न स्वभावरमण-स्वगुण निमग्नरूप ईश्वरत्व में ही रहता है, उससे बाहर कर्मफलप्रदानरूप परभाव में नहीं आता। क्या सर्वशक्तिमान ईश्वर, पापी से भी निर्बल है ? वैदिक धर्म की एक शाखा-आर्यसमाज का मानना है कि 'ईश्वर दुष्टों और पापियों को दण्ड देने के लिए आता है।' इस सम्बन्ध में जैनदर्शन कहता है कि उन दुष्टों पापियों को ईश्वर ने पैदा ही क्यों किया ? ईश्वर तो सर्वज्ञ है। उससे कोई बात छिपी नहीं है। वह जानता है कि यह दुष्ट और पापी बनकर संसार में कहर बरसाएगा, अन्याय, अत्याचार एवं पाप करेगा, तब जान-बूझकर ऐसे दृष्ट एवं पापी लोगों को पैदा ही क्यों करता है ? 'विषवृक्षं संवर्ध्य स्वयं छेत्तमसाम्प्रतम्'-पहले विषैला वृक्ष लगाकर, बढ़ाकर फिर स्वयं उसे काटना अनुचित है, मूर्खता है। क्या वे पापी, दुष्ट और दुराचारी लोग सर्वशक्तिमान ईश्वर से भी अधिक शक्तिशाली हैं कि वह उन्हें दुष्टता, पाप और दुराचार करने से रोक नहीं सकता? जो तथाकथित ईश्वर इच्छामात्र से इतना विराट् जगत् बना सकता है, क्या वह परमपिता अपनी सन्तान को दुराचारी से सदाचारी, पापी से धर्मी, दुर्जन से सज्जन नहीं बना सकता? यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान और दयालु है तो अपनी शक्ति का उपयोग दुष्ट-दुर्जनों को शिष्ट व सज्जन बनाने में क्यों नहीं करता? उसने जीवों में पाप एवं दुराचार करने की बुद्धि ही क्यों उत्पन्न होने दी ? यदि यह कहें कि ईश्वर ने जीवों को कर्म करने की स्वतन्त्रता दे रखी है, अतः वह उन दुष्टों-पापियों को रोक नहीं सकता। यह तो वैसा ही हुआ, जैसे कोई प्रजापालक राजा पहले तो अपनी प्रजा को अपनी मनमानी करने दे, स्वेच्छानुसार चोरी, ठगी, छीनाझपटी और बेईमानी करने दे, फिर उन्हें दण्ड दे कि तुमने चोरी, ठगी, छीना-झपटी और बेईमानी क्यों की ? क्या ईश्वर इतने घटिया स्तर का है, जो पहले पापियों को खुली छूट देकर फिर उन्हें उन पापकर्मों के फलस्वरूप दण्ड दे ? वस्तुतः १ 'फलदाता ईश्वर गण्ये, भोक्तापणु सधाय । एम कह्य ईश्वरतणु, ईश्वरपणुज जाय ।।' -आत्मसिद्धि गा. ८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy