________________
परमात्मा कैसा है, कैसा नहीं ? | २०१ अनुसार प्रवृत्त हो रहा है, चल रहा है । ईश्वर का उसके बनाने-बिगाड़ने में बिलकुल हाथ नहीं है।
ईश्वर को कर्मफलदाता मानने पर ईश्वर का शुद्ध-बुद्ध-मुक्त अलिप्त-असंगस्वरूप खण्डित हो जाता है। मुक्त जीवों को छोड़कर संसारस्थ जितने भी प्राणी हैं, वे सभी कर्म-संयुक्त हैं। वै प्रतिसमय किसी न किसी कर्म को करते ही रहते हैं। साथ ही उन्हें पूर्वकृत किसी न किसी कर्म का फल भी भोगना पड़ता है। ईश्वर सर्वज्ञ है, इसलिए कर्मफलदाता ईश्वर को एक न्यायाधीश की तरह प्रतिक्षण-प्रतिसमय एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों के शुभाशुभकर्म को कर्म को पहले तो जानना और फिर प्रतिसमय उस-उस जीव को कर्मफल भुगवाना भी पड़ेगा। यों ईश्वर दिन और रात में एक सूक्ष्म समय भर भी निश्चिन्त एवं स्वस्थ नहीं रह सकेगा। रसे किसी न किसी जीव के कर्म को जानने और तत्काल उसे पूर्वकृत किसी कर्म के फल भुगवाने के कार्य में सतत लगा रहना पड़ेगा। इस प्रकार सतत स्वभाव=स्वरूप में निमग्न शुद्ध ईश्वर सिर्फ स्वभाव का कर्ता न रहकर परभावों का कर्ता ही बना रहेगा। क्योंकि इतने लम्बे चौड़े संसार के अनन्त अनन्त जीवों के कर्मों को जानने और उन्हें कृतकों का फल देने रूप कर्म करने में परभावों का कर्ता बनना पड़ेगा । अतः संसारस्थ अनन्त जीवों के कर्मों का हिसाब-किताब रखते-रखते वह स्वयं भावकर्म एवं द्रव्यकर्म से लिप्त हो जाएगा, ऐसी स्थिति में उसका ईश्वरत्व रह नहीं सकेगा।
ईश्वरत्व न रहने पर वह तथाकथित ईश्वर नाम का ईश्वर (द्रव्यईश्वर) होकर सामान्य प्राणी जैसा कर्म संयुक्त हो जाएगा। तब फिर यह प्रश्न लगातार उपस्थित होता रहेगा कि उस कर्मलिप्त ईश्वर को कौन कम का फल भुगवाएगा, फिर उस कर्मफल भुगवाने वाले कर्मलिप्त को दूसरा कौन कर्मफल भुगवाएगा? इस प्रकार यहाँ अनवस्था दोष आएगा। अतः यही सिद्धान्त मानना उचित, निर्दोष एवं युक्तिसंगत है कि ईश्वर किसी को न तो कर्म करने की प्रेरणा देता है और न ही किसी जीव को कर्म का फल देता है, तथा भगवद्गीता के अनुसार न ही ईश्वर किसी जीव के पुण्य और पाप को ग्रहण करता है ।1 किसी के दण्डरूप कर्मफल
१ नादत्ते कस्यचित् पापं, न चव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं, तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥ -भगवद्गीता अ. ५ श्लो. १५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org