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आत्मार्थी की दृष्टि : परमात्मभाव की सृष्टि | १८५
पधि जन्य स्थिति, क्षेत्र आदि का वर्णन गणितानुयोग का विषय है। इसका स्वाध्याय करने से चित्त एकाग्र हो जाता है आत्मा धर्म-शुक्लध्यान में संलग्न होती है। आत्मा के परभाव या विभाव में रमण की दशा और स्वभाव-रमण की दशा का परिणाम गणितानुयोग के स्वाध्याय द्वारा जानने से स्वभाव में रमण करने की प्रेरणा मिलती है। इस प्रकार आत्मार्थी जीव चारों अनुयोगों के स्वाध्याय द्वारा यथायोग्य प्रवृत्ति-निवृत्ति करता है, तथा हेय, ज्ञेय, उपादेय का निश्चय भी करता है।
आत्मार्थी का स्वाध्याय करने का उद्देश्य ऐसे आत्मार्थी मानव का शास्त्रज्ञान-अर्जन करने का हेतु भी एक मात्र आत्मा का परम अर्थ, परमहित प्राप्त करना है, अन्य कुछ नहीं। शास्त्र पढ़कर, उन पर मनन-चिन्तन करके, उनमें से निश्चय-व्यवहार, स्वपर, हेय-ज्ञेय-उपादेय, तथा अनेकान्तदृष्टि से प्रत्येक वस्तु के उपयोग का आत्महित की दृष्टि से विवेक करना ही आत्मार्थी का मुख्य प्रयोजन (अर्थ) है। शास्त्र पढ़कर मैं छह द्रव्यों एवं नौ तत्वों का वास्तविक स्वरूप समझं, उसे समझकर मैं आत्मा का हित, कल्याण, श्रेय, एवं मंगल कैसे साधू ? अनादिकाल से चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण करती हुई मेरी आत्मा जन्म-मरणादि के दुःखों से कैसे मुक्त हो ? संसार परिभ्रमण के कारणभूत कर्मों से कैसे छूटे ? मेरी आत्मा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा कैसे बने ? यही प्रयोजन है, आत्मार्थी के पठन-पाठन का, मनन-चिन्तन का, स्वाध्याय का । शास्त्रों का पंचविधरूप स्वाध्याय करने का उसका उद्देश्य स्व (आत्मा) का ही अध्ययन करना है। मेरी आत्मा स्वभाव से हटकर, आत्मा के निजी गुणों से भटक कर परभाव में, विभाव में पर्याय भाव में कहाँ कहाँ और कैसे कैसे जाती है ? उसे कैसे परभावों में जाने से रोकना चाहिए ?
किन-किन विभावों (कषायों, राग-द्वेष, मोह आदि) में आत्मा स्वभाव को छोड़कर लिपट जाती है ? रागादि कारणों से कर्मों से आत्मा कैसे-कैसे बंध जाती है, उस बन्ध को कैसे काटा जा सकता है ? आत्मा कर्मों से सर्वथा मुक्त होकर परमात्मा कैसे बन सकती है ? इसी सत्य तथ्य को जानने, समझने और हृदयंगम करने के लिए आत्मार्थी स्वाध्याय करता है । इस दृष्टि से आत्मार्थी शोधक भी है, साधक भी है, आत्महित. चिन्तक भी हैं, ज्ञाता-द्रष्टा भी है। उसके शास्त्राध्ययन का उद्देश्य यह नहीं है कि मैं शास्त्रज्ञाता बनकर दूसरों को वाद-विवाद में पराजित करू,
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