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________________ १८४ | अप्पा सो परमप्पा संयमी साधक हो, दोनों ही चरणकरणानुयोग के स्वाध्याय द्वारा प्रमाद को दूर करते हैं। आत्मा जब क्रोध, मान, माया, लोभ, काम (वेदत्रय), मोह, रागद्वेष, भय, शोक, जुगुप्सा (वृणा), रति-अरति, हास्य आदि कषायनोकषायों से घिर गई हो, तो आत्मार्थी धर्मकथानुयोग का स्वाध्याय करता है। आत्मार्थी व्यक्ति इसके स्वाध्याय द्वारा विचार करता है कि कषायभाव और नोकषायभाव में दीर्घकाल तक या सतत प्रवृत्त रहने से जीव चारित्रमोहनीय का तीव्र कर्मबन्ध करता है। इस मोहकर्म के तीव्र बन्धन में न पड़ना हो, तथा भवबन्धन से छूटना हो तो अतिशीघ्र कषायनोकषायभावों से मुक्त होना चाहिए । सामान्य संसारी जीव धर्म कथानुयोग द्वारा इस तत्त्व-तथ्य का निर्धारण न करके कषाय-नोकषायभावों में ही रचे-पचे रहने के कारण बार-बार जन्म-मरणरूप संसार बढ़ाते रहते हैं, जबकि आत्मार्थी व्यक्ति इस तथ्य को धर्मकथानुयोग के स्वाध्याय द्वारा हृदयंगम करके कषाय-नोकषायों की उत्पत्ति के कारणों से दूर रहता है, सदा जागृत रहकर इन्हें उपशान्त करने का प्रयत्न करता है, एवं क्षमा, दया, उपशम, मृदूता, (विनय-नम्रता), ऋजूता एवं सन्तोष आदि गुणों में वृद्धि करता है, इस प्रकार कषायों और नोकषायों पर विजय प्राप्त करने का सतत जागृत प्रयत्न करता है । धर्मकथाओं से ऐसी प्रेरणा अनायास ही मिल जाती है। धर्म कथाओं में सर्वज्ञ वीतराग प्रभु द्वारा पूर्व में हुए जीवों के जीवन की सच्ची घटनाओं के आधार पर यह बताया गया है कि कषायरहित या कषायविजयी स्वभावदशा में प्रवर्तमान जीवों का जीवन कितना उत्तम था और उसका परिणाम भो कितना श्रेष्ठ आया । साथ ही कषाय सहित या तीव्र कषायी दशा में परिणत जीव को अधमता ने उन्हें संसार में कितना भटकाए? धर्मकथानुयोग में एक ओर गौतम गणधर की कथा है तो दूसरी ओर गोशालक की भी कथा है। इस प्रकार धर्मकथानुयोग कषायों से विरत होने की और अकषायभाव में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देता है। आत्मार्थी का मन जब अत्यन्त चंचल, व्यग्र और अशान्त हो, आत्मा में व्याकुलता अरति, खिन्नता उत्पन्न हो, तब वह गणितानुयोग का स्वाध्याय करता है । भूगोल, खगोल, द्वीप, समुद्र, चार गतियों, देवलोक, तिर्यग्लोक, नरक आदि तीन लोक का तथा विभिन्न आत्माओं की कर्मों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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