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आत्मार्थी की दृष्टि : परमात्मभाव की सृष्टि | १८३
वर्णन है, जो जीव रत्नत्रय की साधना-आराधना करके सिद्धि को प्राप्त हो चुके अथवा स्वर्गादि पहुँचे, तथा जो जोव विराधना करके संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं या नरकादि कंगतियों में गये हैं। आत्मार्थी मानव इन चारों अनुयोगों का स्वाध्याय, उपयोग या प्रयोग आत्मा की विविध प्रकार की अशुद्धियों या कमियों को दूर करने के लिए तथा परमात्मतत्त्व तक पहुँचने के लिए करता है। मैं शुद्ध बुद्ध-ज्ञानानन्दमय, सहजानन्दी आत्मा हूँ, जड़ जगत् से 'पर' हूँ, ये और इस प्रकार के अतीन्द्रिय विषयों में आत्मा के शंकाशील होने पर आत्मार्थी द्रव्यानुयोग का स्वाध्याय करता है । द्रव्यानुयोग के स्वाध्याय से आत्मार्थी चैतन्यमय आत्मद्रव्य और जड़ पुद्गलमय अजीव द्रव्यों के पृथक-पृथक स्वतन्त्र अस्तित्व को जानता-मानता है, प्रतीति करता है, अनुभूति करता है और शुद्ध आत्मा के साथ संयोग-सम्बन्ध से रहे हुए शरीरादि की क्षणभंगुरता की प्रतीति कर लेता है। तत्पश्चात् वह अपनी आत्मा के विषय में दृढनिश्चय करता है कि मैं आत्मा हूँ, अविनाशी और ज्ञानानन्दमय हूँ तथा आत्मशक्ति और आत्मगुणों से सम्पन्न हूँ एवं त्रिकाल शुद्ध स्वतन्त्र आत्मद्रव्य हूँ। मैं अपने अन्दर रहे हए परमात्मतत्त्व को जागृत कर सकता हूँ। संशय-विपर्ययअनध्यवसाय से रहित एवं अटूट विश्वास से युक्त दृढ़श्रद्धा इसके स्वाध्याय से हो जाती है।
आत्मा जब मद, विषय, कषाय, निद्रा (आलस्य, नींद, अनुत्साह) और विकथा आदि प्रमादों से ग्रस्त हो गई हो, आत्मविस्मृति हो गई हो ? आत्मा का शुद्धस्वरूप भूला गया हो, ऐसी स्थिति में उक्त प्रमाद को दूर करने के लिए आत्मार्थी चरण-करणानुयोग का स्वाध्याय करता है। चरणकरणानुयोग का स्वाध्याय करने से व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान, समिति, गुप्ति, बाह्य-आभ्यन्तर तप, अनुष्ठान आदि बाह्यचारित्र तथा स्वरूप-रमण रूप आन्तर-चारित्र को प्रकट करने की विधि-रीति आदि समझकर तथा चारित्र का महत्व,उद्देश्य एवं लाभ समझ-विचार कर आचरण में लाने से तथा परम उत्साह एवं उच्च अध्यवसायपूर्वक व्रत, समिति-गुप्ति, परीषह-विजय, कपायविजय विषयों के प्रति अनासक्ति के शुद्ध परिणाम लाने से अप्रमत्तदशा प्रकट होती है। व्रत प्रत्याख्यान तथा नित्यनियमों का समझपूर्वक आचरण करे तो विरतिभाव में आगे बढ़ता हा जोव सर्वां शतः अप्रमत्त दशा को प्राप्त कर सकता है। विरतिभाव के बिना व्यक्ति आत्मिक विकास को दिशा में आगे नहीं बढ़ सकता। अतः आत्मार्थी गृहस्थसाधक हो या महाव्रती
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