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१८२ | अप्पा सो परमप्पा
आत्मार्थी को 'पर' के प्रति निश्चय व्यवहार दृष्टि
आत्मार्थी यह भलीभाँति समझता है कि जड़ और चेतन, स्व और पर या उपादान और निमित्त, ये दोनों तत्त्व सर्वथा स्वतन्त्र हैं । आत्मा के साथ जड़ पुद्गलों कर्मों या पर का अथवा किसी भी निमित्त का संयोग होने पर भी किसी नये द्रव्य में दोनों का रूपान्तर नहीं हो जाता । न ही आत्मप्रदेश अपने ज्ञानादि गुणों से विहीन हो जाते हैं और न ही पुद्गल परमाणु अपने वर्णगन्धादि से रहित हो जाते हैं । फिर भी दोनों के संयोग से व्यवहार की भूमिका में कुछ न कुछ परिणाम होता है । किन्तु आत्मार्थी उस होने वाले परिणाम से बेखबर नहीं रहता । वह यथासम्भव निश्चयनय को लक्ष्य में रखकर शुद्धस्वरूप की दिशा में आगे बढ़ता जाता है । और एक दिन शुद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा के समकक्ष हो जाता है । उसकी यह दृष्टि रहती है कि हर्ष, शोक, मान-अपमान, लाभ-अलाभ आदि प्रसंगों में 'पर' में होने वाले परिवर्तनों से आत्मा को कोई हानि नहीं है । जड़ से चेतन सर्वथा स्वतन्त्र है । इस प्रकार के स्पष्ट भानपूर्वक आत्मार्थी का चित्त संकल्प - विकल्प या प्रतिक्रिया के प्रवाह में नहीं बहता । वह अपने उपयोग को 'स्व' में मोड़ने का प्रयास करता है । 1
शास्त्राध्ययन के पीछे आत्मार्थी को दृष्टि
जैनशास्त्रों का चार प्रकार के अनुयोगों में वर्गीकरण किया गया है - ( १ ) द्रव्यानुयोग, (२) चरणकरणानुयोग, (३) धर्मकथानुयोग और (४) गणितानुयोग | द्रव्यानुयोग में जीवद्रव्य, उसके गुण, पर्याय तथा उसमें भी स्वाभाविक एवं वैभाविक पर्यायों का परिणमन, इत्यादि तात्त्विक एवं सैद्धान्तिक बातों का वर्णन है । चरणकरणानुयोग में साधु-साध्वी, श्रावकश्राविका के जीवन के अनुरूप पाँच महाव्रत या बारह व्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, द्वादशविध तप, नियम-उपनियम, त्याग, प्रत्याख्यान आदि चारित्रसम्बन्धी बातों का विस्तृत वर्णन है । धर्मकथानुयोग में उनका
१ जड़ ने चैतन्य बन्ने द्रव्यनो स्वभाव भिन्न,
सुप्रतीतपणे बन्ने जेहने समजाय छे ||१|| स्वरूप चेतन निज, जड़ छे सम्बन्धमात्र, अथवा ते ज्ञपन परद्रव्य माय छे ||२॥ एहवो अनुभवनो प्रकाश उल्लसित थयो, जड़ी उदासी तेहने आत्मवृत्ति थाय छे || ३॥
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— श्रीमद् रायचन्द्र
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