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________________ १८६ | अप्पा सो परमप्पा दूसरों को अपने से हीन, अल्पज्ञ, नीचे या क्षुद्र समझू, अपने विनय, ऋजुता नम्रता, मृदुता आदि सद्गुणों को छोड़कर दूसरों का अपमान या तिरस्कार करू, गुणीजनों का अनादर करू, स्वयं को उच्च ज्ञानी, आत्मार्थी, आत्मज्ञ एवं महान् मानकर अहंकार करू या जाति, कुल, बल, रूप श्रुत, तप, लाभ और ऐश्वर्य का मद करूँ, अपने भक्तों, अनुयायियों, साम्प्रदायिकों और अन्धविश्वासियों की जमात बढ़ाऊँ तथा पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करू । अथवा शास्त्रों को समझने की सभी कुजियाँ मेरे पास हैं, मैं ही शास्त्रों का जानकार हूँ, इस प्रकार का गर्व करना आत्मार्थी के शास्त्रज्ञान का प्रयोजन नहीं होता। वह आत्मार्थी स्वयं सत्यार्थी बनकर प्रत्येक द्रव्य को, प्रत्येक तत्त्व को तथा प्रत्येक वस्तु को सभी नयों की दृष्टि से वास्तविक रूप से जाननेसमझने का प्रयत्न करता है । जहाँ भी सत्य मिलता है, उसे वह उपादेय समझकर ग्रहण करता है । 'मेरा सो सच्चा' यह उसका Moto =सिद्धान्तवाक्य नहीं होता, 'सच्चा सो मेरा' यही उसका उपादेय Moti होता है। आत्मार्थी व्यक्ति शास्त्रों को केवल शब्दतः नहीं जानता, अपितु अर्थतः और भावार्थतः-परमार्थतः जानता-समझता है, जानने-समझने का पुरुषार्थ करता है । शास्त्रों में तीन प्रकार के आगम बताये हैं-सुत्तागमे (सूत्ररूप आगम), अत्थागमे (अर्थरूप आगम) और तदुभयागमे (सूत्र और अर्थ उभयरूप-तथा परमार्थरूप आगम)। आत्मार्थी व्यक्ति शास्त्रों को केवल शब्दशः घोंटकर नहीं रह जाता, वाणी से शास्त्रपाठों का शब्दशः उच्चारण करके नहीं रह जाता, अपितु शास्त्र के प्रत्येक शब्द को अभिधा, लक्षणा और व्यंजना तीनों शक्तियों से तौलकर उसके वाच्यार्थ, तात्पर्यार्थ, अभि. धेयार्थ, लक्ष्यार्थ, व्यंजनार्थ एवं परमार्थ को जानने-समझने का पूरुषार्थ करता है । वह शास्त्र के प्रत्येक शब्द के वाच्यभूत पदार्थ को अनुलक्षित करके भावश्रु तपूर्वक जानने-समझने का प्रयत्न करता है। वह केवल शाब्दिक ज्ञान से सन्तुष्ट नहीं होता, किन्तु अन्तर में डुबकी लगाकर, शोधक बनकर वाच्य भूत पदार्थ को ढूंढता-खोजता है। परमात्मा के ज्ञान, दर्शन सुख (आनन्द) और वीर्य (आत्म-शक्ति) से अपनी आत्मा के शुद्ध स्वभाव की तुलना करके शास्त्राध्ययन के द्वारा परमात्मपद को प्राप्त करने की साधना करता है। नौ तत्वों का आत्मार्थी द्वारा यथायोग्य विश्लेषण जैनागमों में नौ तत्त्वों का वर्णन है। आत्मार्थी जीव इन नौ तत्त्वों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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